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________________ आचार्य शुभचंद्र लिखते है कि - चिंतामणी रत्न, दिव्य निधि, कामधेनु, कल्पवृक्ष ये सब धर्म की श्री, शोभा, अथवा कांति - प्रकाशके समाने दीर्घकाल तक नौकर के समान है।६ धर्म ही गुरु, मित्र, स्वामी, बंधु, अनाथों का नाथ और तारणहार है।" अग्निशीखाने यदि टेढी गति की होती तो विश्व भस्मीभूत हुआ होता , हवाने उर्ध्वगति की होती तो जीवमात्र को जीना कठीन हुआ होता, लेकिन ऐसा होता नहीं है इसका कारण धर्म है। सारा विश्व जिसके आधार पर टीका हुआ है ऐसी वसुंधरा किसी भी आधारपर टीकी नहीं है, उसका आधार धर्म ही है। चंद्र, सूर्य का प्रतिदिन उदय होता है अस्त होता है, विश्वपर उपकार करते हैं, ये सब धर्म का ही प्रभाव है। विश्व का कल्याण धर्म से ही है। संपूर्ण कला जाननेवाला कलाकार यदि होगा लेकिन एक धर्म कला नहीं होगी तो वह कला व्यर्थ है।१० नवकार जैन धर्म का सर्वोत्तम मंत्र है। इसके पाँच पदों में जैन दर्शन का सार, रहस्य भरा हुआ है। वे पाँच पद पंचपरमेष्ठी कहे जाते हैं। परमेष्ठी का अर्थ परम पूजनीय या अत्यन्त गुण - निष्पन्न होता है । नवकार महामंत्र में उन पाँचों को नमस्कार, नमन या प्रणमन किया गया है। वहाँ नमनीय के रुप में किसी व्यक्ति विशेष का उल्लेख नहीं है। ____ अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु - ये पाँच परमेष्ठी ११ के रुप में स्वीकार किये गये हैं। ये पाँचों पद सर्वथा गुणोत्कृष्टता पर आधारित है। इनमें प्रत्येक पद की गुणों की दृष्टि से बड़ी गरिमा है इसलिए ये सबके लिए आदरणीय,सम्मानीय और पूजनीय है। नमस्कार महामंत्र गुणपूजा का एक अद्भूत उदाहरण है। इसका प्रत्येक पद वंदन और नमन करने वालों को यह प्रेरणा देता है कि सभी इन परमात्म पदों को प्राप्त करने की दिशा में अध्यवसाय - उद्यम करें, क्योंकि प्रत्येक आत्मा में वह असीम शक्ति विद्यमान है जिससे वह उत्तरोत्तर आध्यात्मिक उन्नति करती हुई इन पदों तक पहुँच सकती है। अन्यान्य धर्मो में उनके मंत्रों में उनके देवों का वर्णन है, जो व्यक्ति परक है। जैन धर्म में जो नवकार मंत्र है, वह तो आत्मा के, प्राणी मात्र के उत्थान के साथ जुड़ा हुआ है। इसमें गुणों का वर्णन है, व्यक्ति का नहीं। व्याख्याप्रज्ञाप्ति सूत्र अंग आगमों में पाँचवा अंग है। जैन आचार और तत्वों के विशद, विस्तृत विवेचन की दृष्टि से यह आगम अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। विषय वैविध्य तथा विवेचन विस्तार की दृष्टि से इसे जैन सिद्धांतों का विश्वकोश कहा जाये तो अत्युक्ति नहीं होगी। इस आगम का प्रारंभ नवकार मंत्र रुप मंगलाचरण से होता है ।१२ (६७)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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