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टीका साठ हजार (६०,०००) श्लोक प्रमाण है।
कषाय पाहूड़ भी षट्खंडागम की तरह दिगंबर परंपरा में सर्वमान्य है। यह पाँचवे ज्ञान प्रवाद पूर्व की दशवी वस्तु के तृतीय पाहूडं “पेज्जदोषः” से लिया गया है। इसलिये इसको पेज्जदोष पाहूड़ भी कहा जाता है। पेज्जका अर्थ प्रेय या राग है तथा दोष का अर्थ द्वेष है। इस ग्रंथमें क्रोध, मान, माया, लोभ, रुप, कषाय, राग, द्वेष उनकी प्रकृति स्थिति, अनुभाग, प्रदेश आदि का निरुपण किया गया है। तिलोय पन्नत्ति : (तिलोक प्रज्ञाप्ति)
आचार्य यति वृषभने तिलोय पन्नत्ति की रचना की। यह प्राकृत भाषामें लिखा गया प्राचीन ग्रंथ है। जो आठ हजार (८०००) श्लोक प्रमाण है। इसमें तीनों लोकोंसे संबंधित विषयोंका विवेचन है। दिगंबर परंपरामें प्राचीनतम श्रुतांग के अंतर्गत माना जाता है।
धवला टीकामें इस ग्रंथ के अनेक उद्धरण आये हैं। इसमें भूगोल, खगोल, जैन सिद्धांत, पुराण एवं इतिहास आदि पर भी प्रकाश डाला गया है। समाज, राज्यशासन, लोकव्यवहार आदि विषयोंकी यथा प्रसंग चर्चा हुई है।
आचार्य कुंदकुंद के प्रमुख ग्रंथ
आचार्य कुंदकुंद का दिगंबर परंपरामें बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। गौतम गणधर के पश्चात् इनका नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। पद्मनंदी वक्रग्रीव, एलाचार्य तथा गृध्द पृच्छ के नामसे भी ये प्रसिद्ध हैं, किंतु इनका वास्तवकि नाम पद्मनंदी था। ये आंध्रप्रदेश के अंतर्गत कोंडकुंड के निवासी थे। जिससे इनका नाम कुंदकुंद पड़ा ऐसा माना जाता है।
आचार्य कुंदकुंद के समय के विषयमें कोई निश्चित प्रमाण मालूम नहीं होता। कोई विद्वान उनका समय प्रथम शताब्दि के आसपास मानते हैं। कईयों के मतानुसार उनकी तीसरी चौथी शताब्दि मानी जाती है।
आचार्य कुंदकुंदने प्राकृतमें अनेक ग्रंथ रचे । जिनमें पंचास्तिकाय, प्रवचनसार तथा समयसार बहुत प्रसिद्ध है। ये द्रव्यार्थिक नय प्रधान ग्रंथ है। इनमें सूत्र निश्चय नयसे पदार्थों का प्रतिपादन किया है। पंचास्तिकाय : पंचास्तिकाय में धर्म, अधर्म, आकाश, जीव और पुद्गल इन पांच अस्तिकायों का
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