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इस विग्रह के अनुसार दिशायें ही जिनके वस्त्र वे दिगंबर कहलाते हैं ।र्था दिगंबर साधु वस्त्र धारण नहीं करते। वे वस्त्रों को परिग्रह मानते हैं । दिगंबर परंपरामें स्त्रियाँ धर्म स्वीकार करने के लिये अधिकृत नहीं हैं ।
दिगंबर मान्यता 'अनुसार भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात ६८३ वर्ष तक द्वादश अंग ज्ञान की प्रवृत्ति गतिशील रही । ज्ञान, गुरु शिष्य की परंपरा से मौखिक रुप में दिया जाता था । क्रमश: वह विलुप्त होता गया । बारह अंगों का कुछ आंशिक ज्ञान धरसेन नामक आचार्य को था। वे राष्ट्र के अंतर्गत गिरनार पर्वत पर चंद्रगुफामें ध्यान निरत थे। ऐसा कहा जाता है कि उन्हें आचारांग पूर्णतया स्मरण था ।
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आचार्य धरसेनको यह चिंता हुई कि उन्हें जो श्रुतज्ञान स्मरण है, कहीं उन्हीं के साथ न चला जाय इसलिये उन्होने महिमा नगरी के मुनिसंघको पत्र लिखा कि- वे कुछ ऐसी व्यवस्था करें कि ज्ञान की यह महती परंपरा आगे भी चलती रहें । ८८
मुनिवृंद के चिंतन के अनुसार आंध्र प्रदेश से पुष्पदंत एवं भूतबली नामक दो मुनियों को आचार्य धरसेन के पास ज्ञान प्राप्त करने हेतु भेजा। वे दोनों मुनि बड़े मेधावि थे, धरसेन ने उनको दृष्टिवाद के अंतर्गत कुछ पूर्वी और व्याख्याप्रज्ञप्ति की शिक्षा दी । ज्ञान प्राप्त कर दोनों मुनि वहाँ से वापस लौट आए ।
दिगंबरों के सर्वमान्य शास्त्र :
षट्खंडागम :
मुनि पुष्पदंत और भूतबलीने यह विचार किया कि उन्होने आचार्य धरसेन से जो दुर्लभ ज्ञान प्राप्त किया है, उससे औरोंकोभी लाभ मिलें । इसलिये उन्होने षट्खंडागम की रचना की । ये शौरसेनी प्राकृत हैं । पुष्पदंत ने १०७ सूत्रोंमें सत् प्ररूपणा का विवेचन किया तथा भूतबलीने ६०० सूत्रोंमें कर्म प्रकृतियाँ आदि के विषयमें शेष सारा ग्रंथ लिखा।
डॉ. जगदिशचंद्र जैन ने 'प्राकृत साहित्यका इतिहास' नामक पुस्तक में षट्खंडगम् का महत्त्व उसके छ: खंड, उनमें वर्णित विषय की उन पर रचित धवला आदि टीकाओं पर विस्तार से प्रकाश डाला है । ८९
षट्खंडागम का आधार चतुर्दश पूर्वों के अंतर्गत द्वितीय अग्रायणी पूर्वका कर्म प्रकृति नामक अधिकार है
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