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________________ प्रकीर्णक में साधु की भावना श्वेताम्बर मूर्तिपूजक की मान्यतानुसार प्रकीर्णक को भी आगम मानते हैं वे दस है। उसमें से प्रथम प्रकीर्णक का नाम चउसरण (चतुःशरण) है, उसमें अरिहंत, सिद्ध, साधु एवं केवली भगवंत ने कहा हुआ धर्म, इनकी शरण, चार गति का नाश करने वाला है। ऐसा सुन्दर विवेचन किया है। उसमें अरिहंत आदि के गुणों का विस्तृत वर्णन किया है और विशेष रुप से यह बात कही है कि इन चार की शरण भाग्यशाली पुरुष को ही प्राप्त होती है। आगे कहा है कि जिसने इन चार का शरण नहीं लिया, दान, शील, तप, भावना, रुप धर्म नहीं किया और चार गति रुप संसार का छेद नहीं किया वह मनुष्य जन्म हार गया है।८१ बारह भावनाओं में दूसरी अशरण भावना में यही बात है कि जगत की कोई वस्तु शरणरुप नहीं है मात्र उपरोक्त चार शरण ही शरण रुप है। दूसरे आतुर प्रत्याख्यान प्रकीर्णक में एकत्व भावना का उल्लेख हुआ है उसमें लिखा है जीव अकेला ही जाता है निश्चित रुप से अकेला ही उत्पन्न होता है, अकेले की ही मृत्यु होती है और कर्म रहित होने पर अकेला ही सिद्ध होता है, ज्ञान दर्शन सहित मेरी आत्मा ही शाश्वत है अन्य सभी बाह्य पदार्थ संबंध मात्र है।८२ तीसरे महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक में भी एकत्व भावना का ऐसा ही वर्णन हुआ है।८३ चतुर्थ तंदुलवैचारिक प्रकीर्णक में अनित्य भावना और अशुचि भावना का वर्णन प्राप्त होता है। उसका विवेचन करते हुए लिखा है कि यह शरीर अध्रुव, अनित्य, अशाश्वत, वृद्धि और हानि को प्राप्त होनेवाला विनाशशील है जिससे पहले या बाद में उसे अवश्य छोड़ना ही पड़ेगा। उसके बाद में इसी में शरीर की संरचना का विवेचन है। शरीर की अशुचिता का वर्णन करते हुए लिखा है कि यदि शरीर के अंदर का मांस परिवर्तन करके बाहर कर दिया जाये तो अशुचि को देखकर माता भी घृणा करने लगेगी। मनुष्य शरीर मांस, शुक्र, हड्डियों से व्याप्त अपवित्र है किंतु वस्त्र, गंध और माला आदि द्वारा आच्छादित होने से सुशोभित दिखता है। यह शरीर खोपड़ी, चरबी, मज्जा, मांस, हडिड्याँ, खून, चर्म कोश, नाक का मैल और विष्टा आदि का घर है। ये नेत्र, कान, होंठ, ललाट, तालु आदि अमनोज्ञ मल से युक्त है, होंठ के चारों ओर लाल चिकनापन, मुख पसीने से लथपथ, दांत मलिन है हाथ की अंगुलियाँ, अंगुठा, नख, सांधे से जुड़े है। यह अनेक नावों का घर है। इस शरीर के समान, कपाल सुखे हुए वृक्ष के कोटर के समान, पेट बालों से आच्छादित, अशोभनीय कटिप्रदेश, रोमकूप में से स्वभावत: अपवित्र और घोर दुर्गन्धयुक्त पसीना निकलता रहता है। उसमें कलेजा, आँते, पित्ताशय, हृदय, फेफड़े, प्लीहा आदि मल स्नाव के नौ छिद्र है, (४८)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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