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प्रतिक्रमण दोनों, ४) विवेक ५) व्युत्सर्ग ६) तप ७) छेद, ८) मूल ९) अनवस्थाप्य १०) पाराचिक। पिंडनिज्जुत्ति, ओहनिजुत्ति -
पिण्डनियुक्ति, अधोनिर्यक्ति -पिण्ड शब्द जैन पारिभाषिक दृष्टि से भोजनवाची है। प्रस्तुत ग्रंथ में आहार एषणीयता, अनेषणीयता, आदि के संदर्भ में उद्गम आदि दोष तथा श्रमण जीवन के आहार, भिक्षा आदि पहुलओं पर विशद विवेचन किया है।
दशवैकालिक के पंचम अध्ययन का नाम पिण्डैषणा है। इस अध्ययन पर आचार्य भद्रबाहु की नियुक्ति बहुत विस्तृत हो गई है। यही कारण है कि इसे पिण्ड - नियुक्ति के नाम से एक स्वतंत्र आगम के रुप में स्वीकार कर लिया गया है।
ओपनियुक्ति : ओघ का अर्थ प्रवाह, सातत्य परंपरा प्राप्त उपदेश है। जिस प्रकार पिण्ड नियुक्ति में साधुओं के आहार विषयक पहलुओं का विवेचन है उसी प्रकार इसमें साधु जीवन से संबंध आचार व्यवहार के विषयों का संक्षेप में उल्लेख किया है। पिण्ड - नियुक्ति दशवैकालिक नियुक्ति का जिस प्रकार अंश माना जाता है उसी प्रकार इसे आवश्यक नियुक्ति का एक अंश स्वीकार किया जाता है, जिसके रचयिता आचार्य भद्रबाहु है।
ओघनियुक्ति प्रतिलेखना द्वारा आलोचना द्वार तथा विशुद्धि द्वार में विभक्त है । प्रकरणों के नामों से स्पष्ट है कि साधु जीवन चर्या का इसमें समावेश है।८०
पिण्ड-नियुक्ति और ओघ नियुक्ति : इन दोनों ही नियुक्तियों को पैतालीस आगमों में क्यों लिया हो यह प्रश्न है और दोनों अलग - अलग आगम अंशों की नियुक्तियाँ होते हुए भी दोनों का नाम साथ में दिया है । इसका कारण भी विचारणीय है। वास्तव में दोनों के विषय साधु जीवन संबंधी है इसलिए नाम साथ में दिया हो ऐसा हो सकता है। किंतु नियुक्तियाँ तो और भी है उनका आगम में समावेश नहीं किया जाता है। यदि इनको न लीया जाये तो पैंतालीस की संख्या नहीं होगी और दोनों को अलग - अलग लिया जाये तो छियालीस हो जायेंगे इसलिए दोनों का साथ में विवेचन किया हो ऐसा अनुमान किया जा सकता है। यह विषय विचारणीय है।
इस प्रकार श्वेताम्बर, स्थानकवासी और तेरा पंथी परंपरा द्वारा मान्य बत्तीस आगम और इन बत्तीस में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक द्वारा मान्य और तेरह आगम मिलाने से कुल पैंतालीस आगमों के विषयवस्तु का यहाँ संक्षेप में प्रतिपादन किया है क्योंकि आगमों के आधार पर जैन सिद्धांत की मंजिल खड़ी है इसलिए सर्वप्रथम आगमों का विवेचन किया गया है।