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________________ मरणसमाही (मरण - समाधि) - इसका दूसरा नाम मरण विभक्ति है । यह सबसे बड़ा प्रकीर्णक है १) मरण विभक्ति, २) मरण विशोधि ३) मरण समाधि ४) संलेखना श्रुत ५ ) भत्तपरिज्ञा ६ ) आतुर - प्रत्याख्यान ७) महाप्रत्याख्यान ८) आराधना इन आठ प्राचीन श्रुत ग्रंथों के आधार पर प्रस्तुत प्रकीर्णक की रचना हुई है । शिष्य ने आचार्य से जिज्ञासा प्रस्तुत की कि भगवान समाधि-मरण किस प्रकार प्राप्त होता है ? आचार्य ने समाधान करने हेतु आलोचना, संलेखना, क्षमापना आदि चौदह द्वारों का विवेचन किया है । परिसह सहन करके पादोपगमन संथारा करके सिद्ध गति प्राप्त करने वालों के दृष्टांत भी दिये हैं अंत में अनित्य अशरण आदि बारह भावनाओं पर भी प्रकाश डाला है और भी अनेक प्रकीर्णकों की रचनाएँ हुई है किंतु वे प्राप्त नहीं है । - महानिशीथ छेद सूत्र महानिशीथ पूर्ण रुप से यथावत नहीं रह सका है। इसमें छह अध्ययन तथा दो चूलाएँ है। प्रथम अध्ययन का नाम शल्योद्धरण है । इसमें पाप रुपी शल्य की निंदा और आलोचना के संदर्भ में अठराह पाप - स्थानकों की चर्चा है । द्वितीय अध्ययन में कर्मों के विपाक तथा पाप कर्मों की आलोचना की विधेयता का वर्णन है। तृतीय और चतुर्थ अध्ययन में कुत्सित शील या आचरण वाले साधुओं का संसर्ग न किया जाने के संबंध में उपदेश है। पंचम अध्ययन में गुरु शिष्य के पारस्पारिक संबंध का विवेचन है उस प्रसंग में गच्छ का भी वर्णन है । षष्ठ अध्ययन में आलोचना के दस भेदों का तथा प्रायश्चित के चार भेदों का वर्णन है । - इस सूत्र की भाषा तथा विषयवस्तु को देखते हुए यह रचना अर्वाचीन हो ऐसा लगता है। जीयकप्पसुत्त (जीतकल्प) सूत्र इसके रचयिता सुप्रसिद्ध भाष्यकार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण माने जाते हैं । इस सूत्र जैन श्रमणों के आचार के संबंध में प्रायश्चित का विधान है । प्रायश्चित का महत्त्व आत्मशुद्धि या अन्तः परिष्कार की उपादेयता - इन विषयों का प्रतिपादन किया गया है। प्रायश्चित दो शब्दों के योग से बनता है प्राय: का अर्थ है पाप और चित्त का अर्थ है उस पाप का विशोधन करना । प्रायः नाम तपः प्रोक्तं चित्तं निश्चय उच्यते, तपोनिश्चय संयोगात् प्रायश्चित्तमितीर्यते|७९ अर्थात् पाप को शुद्ध करने की क्रिया का नाम प्रायश्चित है । इसमें प्रायश्चित के दस भेदों का विवेचन है- १) आलोचना, २) प्रतिक्रमण ३) मिश्र - आलोचना (४६)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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