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नक्षत्र, करण, ग्रह, दिवस, मुहूर्त, शकुन बल, लग्न बल, निमित्त बल आदि ज्योतिष संबंधि विषयों का विवेचन है। ९. देविंदथव (देवेन्द्र-स्तव) प्रकीर्णक -
इसमें बत्तीस देवोन्द्रों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। ग्रंथ के प्रारंभ में कोई श्रावक भगवान् ऋषभदेव से लेकर चौबीसवे तीर्थंकर महावीर स्वामी तक की स्तुति करते हुए कहता है कि तीर्थंकर बत्तीस इन्द्रों के द्वारा पूजित है। श्रावक की पत्नी यह सुनकर जिज्ञासा प्रस्तुत करती है कि, “बत्तीस इन्द्र कौन-कौन से है ? कैसे है ? कहाँ रहते है ? किसकी स्थिति कितनी है ? भवन परिग्रह उनके अधिकार में भवन या विमान कितने है ? नगर कितने है ? वहाँ के पृथ्वी की लंबाई-चौड़ाई कितनी है ? उन विमानों का रंग कैसा है ? आहार का काल कितना है ? श्वासोश्वास कैसा है ? अवधिज्ञान का क्षेत्र कितना है आदि मुझे बताओ”
श्रावक उसका समाधान करते हुए देवताओं आदि का जो वर्णन करता है यही इस प्रकीर्णक का मुख्य विषय है। इसमें बत्तीस इन्द्र पर प्रकाश डालने की बात कही है किंतु उससे अधिक इन्द्रों के संबंध में चर्चा की गई है। १०. वीरत्थओ (वीर स्तुति) प्रकीर्णक -
इस प्रकीर्णक के स्थान डॉ. मुनी नगराजजी तथा आचार्य देवेन्द्रमुनीजी महाराज ने मरण-समाधि प्रकीर्णक का उल्लेख किया है जिसका विवेचन आगे किया जायेगा।
आगम-दीप प्रकाशन द्वारा प्रकाशित ४५ आगम की गुर्जर छाया में वीरत्थओ प्रकीर्णक लिया गया है। उसमें ४३ गाथा है। प्रारंभ में वीर जिनेंद्र को नमस्कार कर उनके प्रकट नामों से उनकी स्तुति की गई है। जिसमें अरू, अरहंत, अरिहंत, देव, जिन, वीर आदि अनेक नाम दिये है और उन नामों की व्याख्या दी है। __अंत में लिखा है कि श्री वीर जिनेंद्र की इस नामावली द्वारा मेरे जैसे मंदपुण्य ने स्तुति की है, हे जिनवर ! मुझपर कृपा करके मुझे पवित्र शिवपथ में स्थिर करो।
इस प्रकार दस प्रकीर्णकों के बाद छह छेद सूत्रों का विवेचन किया है जिसमें से निशीथसूत्र बृहत्कल्प, व्यवहार सूत्र और दशाश्रुतस्कंध का तो विवेचन पहले किया जा चुका है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संप्रदाय में वीयकप्पो और महानिसीह - इन दो को भी छेद सूत्र में समाहित किया गया है जिसका वर्णन आगे दिया जाएगा। पहले मरण समाधि प्रकीर्णक का वर्णन दिया जा रहा है।