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सकता किंतु संथारे की साधना से मृत्यु को सफल बनाया जा सकता है। इस प्रकीर्णक में संस्तारक की प्रशस्तता का बड़े सुंदर शब्दों में वर्णन किया गया है जिन्होंने संस्तारक पर आसीन होकर पंडित मरण प्राप्त किया है उनका कथन इसमें किया गया है।
__ जो देह त्याग करना चाहते हैं वे भूमि पर दर्भ आदि से संस्तारक अर्थात् बिछौना तैयार करके उस पर लेटते हैं। उस बिछाने पर स्थित होते हुए साधक साधना द्वारा संसार सागर को तैर जाते हैं।
__ संथारे में साधक सभी से क्षमायाचना कर कर्म क्षय करता है और तीन भव में मोक्ष प्राप्त कर सकता है। ७) गच्छायार (गच्छाचार) प्रकीर्णक -
इसमें गच्छ अर्थात समूह में रहने वाले श्रमण - श्रमणियों के आचार का वर्णन है। यह प्रकीर्णक महानिशीथ, बृहत्कल्प व व्यवहार सूत्रों के आधार पर लिखा गया है। असदाचारी श्रमण गच्छ में रहता है तो वह संसार परिभ्रमण को बढ़ाता है किंतु जो सदाचारी श्रमण गच्छ में रहता है तो धर्मानुष्ठान की प्रवृत्ति दिन दुनी रात चौगुनी बढ़ाता है । जो आध्यात्मिक साधना में उत्कर्ष करना चाहता है उन्हें जीवन पर्यन्त गच्छ में ही रहना चाहिए क्योंकि गच्छ में रहने से साधना में बाधा नहीं हो सकती है।
इसमें गच्छ, गच्छ के साधु, साध्वी, आचार्य उन सब के पारस्पारिक व्यवहार नियम आदि का विशद वर्णन है।
ब्रह्मचर्य पालन में सदा जागरुक रहने की ओर श्रमणवृन्द को प्रेरित किया गया है। विषय को अधिक स्पष्ट करते हुए उल्लेख किया गया है कि दृढचेता स्थविर के चित्त में स्थिरता, दृढता होती है पर जिस प्रकार घृत अग्नि के समीप रहने पर द्रवित हो जाता है उसी प्रकार स्थविर के संसर्ग से साध्वी का चित्त द्रवित हो जाये ऐसी आशंका बनी रहती है।
चंदविजयं (जंदविज्झय) यह गच्छाचार का दूसरा भाग है जिसमें विनय,आचार्य गुण, शिष्य गुण, विनयनिग्रहगुण आदि सात विषयोंका विस्तार से विवेचन है। ८) गणिविज्जा (गणिविद्या) प्रकीर्णक
यह ज्योतिष का एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। गणि शब्द गण के अधिपति या आचार्य के अर्थ में है। संस्कृत में भी गणि शब्द इसी अर्थ में हैं किंतु इस प्रकीर्णक के नाम के पूर्वार्द्ध में जो गणि शब्द है वह गण-नायक के अर्थ में नहीं है। गणि शब्द की एक अन्य निष्पत्ति भी है। गण् धातू के 'इन' प्रत्यय लगाकर गणना के अर्थ में गणि शब्द बनाया जाता है। यहाँ उसी का अभिप्रेत है क्योंकि प्रस्तुत प्रकीर्णक में गणना संबंधी विषय वर्णित है। इसमें दिन, तिथि,