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जिसमें दुर्गन्ध युक्त पित्त, कफ, मूत्र आदि का निवास स्थान है। मांस गंध से युक्त अपवित्र
और नश्वर है इस प्रकार विचार करने से और उसका विभत्स रुप देखकर यह जानना चाहिए कि यह शरीर अध्रुव, अनित्य, अशाश्वत, सड़न- गलन और विनाशधर्मी है। इस प्रकार एक सौ दो सूत्र एक सौ बयालीस सूत्र तक शरीर की रचना और उसकी अशुचिता का विस्तृत विवेचन किया है।८४
इसमें वर्णित अशुचि भावना का विवेचन बारह भावना में से अशुचिभावना के समान है। आगम वाङ्मय में भावनाओं के संबंध में विभिन्न प्रसंगों में जो वर्णन आया है उसका यहाँ संक्षेप में विवेचन किया गया है। इस वर्णन में दो बातें मुख्य रुप से हमारे समाने आती है। पहली बात यह है कि बारह भावनाओं के रुप में जो सुव्यवस्थित क्रमबद्ध विवेचन हमें आज प्राप्त है; आगमों में वैसा नहीं है जो कुछ भी है वह संकेत रुप में है इसलिए अनित्यत्व, अशरणत्व आदि के अतिरिक्त अन्य भावनाएँ प्रकट रुप में दृष्टिगोचर नहीं होती। अन्य विभिन्न प्रसंगों में आये हुए वर्णनों में उनको सांकेतिक भाव रुप में तो हम परिग्रहित कर सकते हैं।
एक दूसरी बात यह है कि अशुभ या अप्रशस्त तथा शुभ या प्रशस्त भाव के आधार पर ही भावनाओं का वर्णन किया गया है। वहाँ चिंतन मूलक मुख्य अशुभ और शुभ पक्षों को स्वीकार किया गया है। साधक पहले अशुभ का चिंतन करे उसका परित्याग करे, बाद में शुभ का चिंतन करे और उसे ग्रहण करे ।
उपर्युक्त संदर्भो में आये वर्णन से इतना तो अवश्य ही सिद्ध होता है कि वैचारिक भावोद्भावन तथा चिंतन विमर्श से सत्वोन्मुखता, चर्या में आत्म पराक्रमशीलता, उदित होती है।
आगमों पर व्याख्या साहित्य
आगमों की व्याख्या और विश्लेषण में विद्वानों ने भिन्न भिन्न विधाओंमे साहित्यकी रचना की इसका एक ही लक्ष्य था कि आगम गत तत्वोंका विषदरूपमें विवेचन किया जाए, ताकि अध्ययन करनेवाले, जिज्ञासु जन आगमों का सार आत्मासात करनेमें सक्षम हो सके, क्योंकि, आगमों पर ही जैन संस्कृति, धर्म, दर्शन और संघका प्रासाद अवस्थित है।
आगमोंपर नियुक्ति, भाष्य, यूर्णि, टीका, वृत्ति, दीपिका, टब्बा आदि के नाम से विशाल साहित्य की रचना हुई।
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