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________________ १) व्यवहार सूत्र : व्यवहारसूत्र छेद सूत्रोंमें अत्यंत महत्वपूर्ण है । इसे बारह अंगों का नवनीत कहा गया है। इसके रचनाकार आचार्य भद्रबाहु थे । उन्होने इस पर नियुक्ति की रचना की । व्यवहार सूत्र पर भाष्य भी प्राप्त होता है किंतु उसके रचयिता का नाम अज्ञात है । मलयगिरिने भाष्य पर विवरण लिखा है। इस पर चूर्णि भी प्राप्त होती है, जो अप्रकाशित है। 1 इसमें दस उद्देशक है । उनमें साधु द्वारा की गई भूलों के लिये प्रायश्चितों और त्रुटियों का विधान है । यदि कोई साधु गण को छोड़कर चला जाये और फिर वापस चला आये तो उसे आचार्य, उपाध्याय आदि के समक्ष आलोचना, निंदा, गर्हा आदि करके अपने को विशुद्ध करना चाहिये । यदि आचार्य उपाध्याय आदि न मिले तो ग्राम, नगर, निगम, राजधानी, आदि की पूर्व तथा उत्तर दिशामें अपने मस्तक पर दोनों हाथों की अंजलि रखें और मैंने ये अपराध किये हैं, इस तरह अपने अपराधों का कथन करता हुआ आलोचना करें । आचार्य एवं उपाध्याय के लिये हेमंत तथा ग्रीष्म ऋतुओंमें एकाकी विहार करने का निषेध किया गया है । वर्षा कालमें दो के साथ विहार करने का विधान है । स्थविरोंसे बिना पूछे अपने पारिवारिकों संबंधियों के यहाँ साधुओं के लिये भिक्षार्थ जाने का निषेध है। ग्राम आदि में जिस स्थल को एक दरवाजा हो, वहाँ अल्पश्रुतधारी बहुत से साधुओंके लिये रहने का निषेध हैं। एक आचार्य की मर्यादा में रहनेवाले साधु साध्वियों को पीठ पीछे व्यवहार न करके प्रत्यक्ष में मिलकर भूल आदि बताकर आपस भोजन आदि का व्यवहार करना चाहिए ऐसा विधान किया गया है । इस प्रकार और भी विधि विधानोंका उल्लेख है - जो प्रायश्चित एवं आलोचना आदि से संबंधित हैं । २) बृहत् कल्पसूत्र: I यह कल्प अथवा बृहत्कल्प या कल्पाध्ययन भी कहलाता है । जो पर्युषण में पढ़े वाले कल्पसूत्र से भिन्न है । यह जैन साधुओंका प्राचीनतम आचार शास्त्र है । निशीथ सूत्र व्यवहार सूत्र और बृहत्कल्पकी भाषा काफी प्राचीन है । I इस सूत्र कल्प - कल्पयोग्य या कल्पनीय, अकल्प, अकल्पनीय स्थान, कपड़े, पात्र, उपकरण आदि का इसमें विवेचन है। इस कारण इसका नाम कल्प है। इसमें छह उद्देशक हैं । आचार्य मलयगिरीने लिखा है कि- प्रत्याख्यान नामक नवम् पूर्वकी आचार नामक (३७)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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