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________________ पहले आगमोंका अध्ययन आचारांग से शुरु होता था, परंतु जबसे आचार्य शयंभवने दशवैकालिका सूत्र की रचना की तबसे सर्व प्रथम दशवैकालिकके अध्ययन करने की परंपरा शुरु हुई और उसके बाद उत्तराध्ययन सूत्र आदि सीखाया जाता है । ६९ १) दशवैकालिक सूत्र : h यह पहला मूलसूत्र है। ऐसी मान्यता है कि कालसे निवृत्त होकर अर्थात् दिनके अपने सभी कार्यों को भलिभांति संपन्न कर, विकाल में संध्याकालमें इसका अध्ययन किया जाता था । इसलिये यह दशवैकालिक कहा गया है। इसकी रचना के बारेमें जैन समाज में एक कथानक प्रचलित है । - - शय्यंभव नामक एक विद्वान ब्राह्मण थे। जिन्होंने कालांतर में जैन श्रमण दीक्षा स्वीकार की। उनका मनक नामक बालक पुत्र भी उनके पास दीक्षित हो गया । अपने विशिष्ट ज्ञानद्वारा शय्यंभव ने यह जाना कि बालक मनकका आयुष्य छह महिने का है । उसे श्रु का बोध कराने हेतू आगमों के सार रुपमें दशवैकालिक सूत्र की रचना की । बालक ने उसका अध्ययन कर आत्मकल्याण किया । - इस सूत्रमें दस अध्ययन है । अंतमें दो चूलिकायें हैं । ऐसा माना जाता है कि- इन चुलिका की रचना आचार्य शयंभव ने नहीं की । ये बादमें मिलाई गई है । आचार्य भद्रबाहुने इसपर नियुक्ति की रचना की । अगस्थसिंह और जिनदास गणि महत्तरने चूर्णि लिखी | आचार्य हरिभद्र सूरिने टीका की रचना की । तिलकाचार्य, सुमतिसूरि तथा विनय हंसादि विद्वानों ने इस पर वृत्तियाँ लिखी यापनीय संघ के आचार्य अपराजित सूरिने जो विजयाचार्य के नाम से भी प्रसिद्ध थे; इसपर उन्होने विजयोदया नामक टीका लिखी । जर्मन विद्वान वाल्टर सूब्रिंगने भूमिका आदि सहित तथा प्रोफेसर लायमेनने मूलसूत्र और निर्युक्ति के जर्मन अनुवाद सहित इसे प्रकाशित किया । प्राकृत के सुप्रसिद्ध विद्वान डॉ. पीसलने उत्तराध्ययन और दशवैकालिक को भाषाविज्ञान की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण बताया है । (३४) २) उत्तराध्ययन सूत्र : उत्तराध्ययन सूत्र यह दूसरा मूल सूत्र है। उत्तर + अध्ययन इन दो शब्दों के मिलने से उत्तराध्ययन शब्द बना है । ऐसा माना जाता है कि - श्रमण भगवान महावीर ने अपने अंतिम चातुर्मास में अपने अंतिम समय में परिषद में उपस्थित जनों को छत्तीस विषयों का उपदेश दिया वे उत्तराध्ययन सूत्रमें संग्रहित हैं ।
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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