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तृतीय अध्ययनमें सोमिल ब्राह्मण का कथानक है। इस ब्राह्मणने वानप्रस्थ तापसों की दीक्षा अंगीकार की थी। वह दिशाओं की पूजा करता था। तथा अपनी भुजायें ऊपर उठाकर सूर्य की आतापना लेता था।
चौथे अध्ययनमें सुभद्रा नामक आर्यिका का कथन है। ११) पुष्पचुलिका :
यह प्रश्न व्याकरण का उपांग है। इस उपांगमें भी श्रीं, ही. धृति, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी, इला, सूरा, रस और गंधदेवी आदि दस अध्ययन है। इसमें भगवान पार्श्वनाथकी परंपरामें दीक्षित श्रमणियों की चर्चा है । ऐतिहासिक दृष्टि से इसमें भगवान पार्श्वनाथ के युग की साध्वियोंका वर्णन है।
१२) वृष्णिदशाः ___ इसमें बारह अध्ययन हैं। पहले अध्ययन में द्वारिका नगरी, कृष्णवासुदेवका वर्णन है। बावीसवें तीर्थंकर भगवान अरिष्टनेमि संबंधी विवेचन भी इसमें है। जब भगवान अरिष्टनेमि विचरण करते हुए रैवतक पर्वत पर आये । कृष्णवासुदेव गजारूढ़ होकर दलबल सहित दर्शन हेतु गये।
वृष्णिवंश - यादववंश के बारह कुमारों ने भगवान अरिष्टनेमि के पास श्रमण दीक्षा ग्रहण की।
चार मूल सूत्र : परिचय
उपांग, छेद, मूल आदि अंगोंसे संबंद्ध हैं । मुख्य रुपसे अंगोंमें जैन धर्म के सिद्धांत, व्रत, विधान, आचार- मर्यादा आदि का वर्णन हैं। उन्हीं विषयों का उपांग आदि में अपनी अपनी पद्धति से विवेचन किया गया हैं। आचार या महाव्रतों का सम्यक परिपालन जैन धर्म का सबसे मुख्य आधार है। आचार ही पहला धर्म है। आचार के अभाव में चाहे कितना ही शास्त्रज्ञान हो, प्रवचन कौशल हो, उनका कोई महत्त्व नहीं माना जाता। सबसे पहले मूल की रक्षा आवश्यक है।
मूल के नामसे प्रसिद्ध सूत्रोंमें जैन धर्म मूल रूप आचार पर प्रकाश डाला गया है। एक साधुका आचार अखंडित रहे, उसमें जराभी स्खलना न आये, इस ओर इन सूत्रोंमें विशेष ध्यान दिलाया गया है। इनका अध्ययन प्रत्येक साधु-साध्वी के लिये अत्यंत आवश्यक माना जाता है।
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