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बादशहा अकबरने जिनको गुरु रुपमें आदर दिया, उन आचार्य हरि विजय सुरि के शिष्य शांतिचन्द्र वाचकने वि.स. १६५० में इस सूत्र पर प्रमेय रत्न मंजूषा नामक टीका लिखी। ६-७) सूर्यप्रज्ञप्ति - चंद्र प्रज्ञप्ति :
ये छठे - सातवें उपांग है। यद्यपि ये दो ग्रंथ माने जाते है किंतु इनमें सारी सामग्री एक जैसी है। सूर्य, चंद्र, नक्षत्रों आदि का इसमें विस्तार से वर्णन है । सूर्यप्रज्ञप्ति में प्रारंभ में मंगलाचरण की चार गाथायें हैं। चंद्रप्रज्ञप्तिमें वे गाथायें नहीं है। बाकीकी सामग्री में कुछभी अंतर नहीं हैं। ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि इनमें से एक आगम लुप्त हो गया। उंपांगोंकी संख्या पूर्ति की दृष्टि से दो आगमों की मान्यता प्रचलित हुई। आचार्य- मलयगिरीने इस पर टीका की रचना की। ८) निरयावलिकाः कल्पिका :
इसमें १) निरयावलिका - कल्पिका - २) कल्पावतासिका ३) पुष्पिका ४) पुष्प चूलिका तथा ५) वृष्णि दशा इन पांच अंगोंका समावेश है। ऐसा माना जाता है कि पहले ये पांचों एक ही सूत्र के रुपमें माने जाते थे किंतु आगे चलकर बारह अंगों और उपांगों का संबंध जोड़ने के लिये इन्हें पृथक्-पृथक् गिना जाने लगा ६८ इनमें आर्य जंबू के प्रश्न और गणधर सुधर्माके उत्तर हैं।
निरयावलिका सूत्र में दस अध्ययन हैं। पहले अध्ययन में कोणिक - अजातशत्रु का जन्म, बड़े होने पर उसके द्वारा अपने पिता श्रेणिक को कारागृह में डालना, स्वयं राजसिंहासन पर बैठना, श्रेणिक द्वारा आत्महत्या, कोणिक और वैशाली गणराज्य के अध्यक्ष चेटक के संग्राम आदिका वर्णन है। ९) कल्पावतंसिका -
यह अंतगड दशांग सूत्रका उपांग है। कल्पावतंसिका में दस अध्ययन है। इसमें राजा कोणिक के दस पुत्रों का वर्णन है, जिन्होंने दीक्षा ग्रहण की। उग्र संयमाराधनाद्वारा अंतिम समय में पंडित मरणद्वारा सब देवलोक में गये ।
श्रेणिक कषायके कारण नरक में जाते हैं, उनके पुत्र सत्कर्म से देवलोक में जाते हैं। उत्थान पतन का आधार मानव के स्वयं के कर्मोंपर ही है। मानव साधना से भगवान् बन सकता है और विराधना से नरक का कीड़ा भी बन सकता है। १०) पुष्पिका : इसमें दस अध्ययन हैं। प्रथम और द्वितीय अध्ययनमें चंद्र और सूर्य का वर्णन हैं।
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