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छत्तीस पदों का विवेचन है । गणधर गौतमने प्रश्न किये है और भगवान महावीर ने उत्तर दिये है ।
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अंग सूत्रोंमें जिस प्रकार व्याख्या प्रज्ञाप्ति सूत्र सबसे विशाल है उसी प्रकार सूत्रों में प्रज्ञापना सूत्र सबसे बड़ा है। इसकी रचना वाचक वंशीय पूर्वधारी आर्य श्यामने की । ऐसा माना जाता है कि वे सुधर्मा स्वामी की तेइसवी पीढ़ि में हुए । आचार्य हरिभद्र सूरिने इस विषम - कड़े पदोंकी व्याख्या करते हुए प्रदेश व्याख्या नामक लघु वृत्तिकी रचना की । इसके आधार पर आचार्य मलयगिरीने टीका लिखी ।
इसके पहले पदमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वृक्ष, बीज, गुच्छ, लता, तृण, कमल, कंद, मूल, मगर, मत्स्य, सर्प, पशु, पक्षी आदिका वर्णन हैं। इसमें आर्य देश, जाति आर्य, कूल आर्य तथा शिल्पआर्य आदि का उल्लेख हैं । ब्राह्मी खरोष्ट्री आदि लिपियोंकी भी चर्चा हैं ।
५) जंबू द्वीप प्रज्ञाप्ति :
यह पाँचवाँ उपांग हैं। यह पूर्वार्ध उत्तरार्ध इन दो भागों में विभक्त है । पूर्वार्धमें चार तथा उत्तरार्ध में तीन वक्षष्कार हैं । वे १७६ सूत्रोंमें विभक्त है । पहले वक्षष्कार में जंबू द्विप में स्थित भरत क्षेत्रका वर्णन है । अनेक पर्वत, गुफायें, नदियाँ, दुर्गम स्थान, अटवी, तथा स्वापद पशु आदि का भी वर्णन उसमें हैं ।
दूसरे वक्षष्कारमें उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी के छह छह भेदों का विवेचन हैं। सुषमा दुषमा नामके तीसरे कालमें पंद्रह कुलकर हुए। उनमें नाभिकुलकर की मरुदेवी नामक पत्नी से आदि तीर्थंकर ऋषभदेव का जन्म हुआ। वे कोशलदेश के निवासी थे । प्रथम राजा, प्रथम जिन, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर तथा प्रथम धर्म वर चक्रवर्ती - धर्मवर चतुर्गत चक्र जाते थे ।
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उन्होने कलाओं एवं शिल्पोंका उपदेश दिया । तदनंतर अपने पुत्रों को राज्य सौंपकर उन्होने श्रमण धर्ममें प्रवज्या स्वीकार की । उन्होने अपने तपोमय जीवनमें अनेक उपसर्ग कष्ट सहन किये । पुरिमताल नामक नगर के उद्यानमें उन्हें केवल ज्ञान हुआ । अष्टापद पर्वत पर उन्होने सिद्धि प्राप्त की । तीसरे वक्षष्कार में भरत चक्रवर्ती और अनेक दिग्विजयका विस्तार से वर्णन है । अष्टापद पर्वत पर भरत चक्रवर्ती को निर्वाण प्राप्त हुआ ।
आचार्य मलयगिरिने इसपर टीका लिखी, किंतु वह लुप्त हो गई। तद्नंतर इसपर और टीकायें लिखी गयीं ।
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