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संसार के बहुत से दुःखित लोगोंको देखकर भगवान महावीर से प्रश्न करते है तथा भगवान महावीर उसके उत्तर देते हैं। पाप कर्मों के परिणाम स्वरुप प्राणी किस प्रकार कष्ट पाते हैं तथा पुण्योके परिणामस्वरुप सुख भोगते हैं। इन दोनों ही स्थितियों का इस सूत्रमें विषद विवेचन है। आचार्य अभयदेव सूरीने इस पर टीका की रचना की।
इस प्रकार आचार्य अभयदेव सूरिने तृतीय अंग सूत्र समवायांग सूत्र से लेकर विपाक सूत्र तक नौ अंगोंकी टिकायें लिखी। इसलिये वे जैन जगतमें नवांगी टिकाकार के नामसे प्रसिद्ध है।
जैसा पहले सूचित किया गया है बारहवां अंग दृष्टिवाद लुप्त हो गया। इसलिए उसका संकलन नहीं किया जा सका। १२) दृष्टिवाद :
यह बारहवाँ अंग है। दृष्टि का अर्थ दर्शन तथा वाद का अर्थ चर्चा या विचार विमर्श है । इसमें विभिन्न दर्शनों की चर्चा रही होगी। दृष्टिवाद इस समय लुप्त है।
उपांग परिचय
__'उप' उपसर्ग समीप का द्योतक है। जो अंगोके समीप होते हैं अर्थात उनके पूरक होते • हैं वे उपांग कहलाते है । चार वेदोके शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छंद, निरुक्त तथा ज्योतिष ये छह अंग माने गये हैं। पुराण, न्याय, मीमांसा तथा धर्मशास्त्र ये उपांग माने गये हैं।
जैन परंपरामें भी बारह उपांगोंकी तरह बारह अंगोंकी भी मान्यता है किंतु प्राचीन आगम ग्रंथोंमें इस संबंधमें उल्लेख प्राप्त नहीं होता। अंगों की रचना या संग्रंथना गणधरों द्वारा की गई और उपांगोंकी रचना स्थविरोने की। विषय आदि की दृष्टि से इनका कोई विशेष संबंध प्रतीत नहीं होता। वैसे अंगोंमें सामान्यत: तत्व और आचारका वर्णन है। उपांगोंमें भी उसी विषय पर भिन्न - भिन्न रुपोंमें चर्चा की गई है।
आचार्य श्री देवेंद्र मुनिमहाराजने बारहवीं शताब्दी के पूर्व हुए आचार्य श्रीचंदऔर तेरहवी शताब्दि के बाद के और चौदहवीं शताब्दी के प्रथम चरणमें हुए आचार्य जिनप्रभा का उल्लेख करते हुए लिखा है कि - अंगबाह्य को उपांग के स्वरुप में स्विकार किया है।६७
१)औपपातिक सूत्रः ___ यह पहला उपांग है। उपपात का अर्थ जन्म या उत्पत्ति होता है। इससे औपपातिक शब्द बना है। इस आगममें देवों तथा नारकों में जन्म लेने का अथवा साधकोंद्वारा सिद्धि