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________________ किया गया है। उनके बारह अंग माने गये हैं। जिनमें जैन धारा दार्शनिक, धार्मिक, नैतिक आदि विभिन्न रुपोमें प्रवाहित होती है ; उनके बारह अंग माने गये हैं। आचार प्रभृति आगममें श्रुत पुरुष का अंगस्थान में होने से अंग इस प्रकार पहचाने जाते है।५७ आगम पुरुष में आचारांग उसके शीर्ष (मस्तक) स्थानिय है। जिस प्रकार हाथ - पैर आदि अंग मनुष्य के शरीर को संचालित करते हैं वैसे ही आगम धार्मिक जीवन को संचालित करते हैं। उसी प्रकार से यहाँ आगम श्रुत ज्ञानरुपी पुरुष के विविध अंगोंका संक्षेपमें वर्णन किया जा रहा है। १) आचारांग आचारांग सूत्र का बारह अंगोंमें महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसलिए विद्वानोंने इसको अंगोंका सार कहा है।५८ साधुओं और साध्वियों की आचार परंपरा का इसमें विस्तार से वर्णन किया गया है। ___ यह दो श्रुतस्कंधोंमें विभक्त है। पहले श्रुत स्कंधमें नौ अध्ययन हैं। वे ब्रह्मचर्य - आचार चर्या कहलाते हैं इसमें चवालीस उद्देशक हैं। इसके प्रथम अध्ययनका नाम उपधान श्रुत है। इसमें भगवान महावीर की कठोर साधना और तपश्चर्या का वर्णन है। जब भगवान लाढ़ देशमें वज्रभूमि तथा शुभ्रभूमि नामक स्थानों में विचरण कर रहे थे, तब उन्हें अनेक प्रकारके उपसर्गों - कष्टों को सहन करना पड़ा। वहाँ के लोग उन्हें मारते, पीटते, दाँतों से काट लेते थे। उनको वहाँ लुखा, सूखा आहार प्राप्त होता था। वहाँ लोग उनके पीछे कुत्तों को छोड़ते थे। कोई एकाद व्यक्ति कुत्तोंसे उन्हें बचाता था।५९ स्थानांग सूत्र के नौवें स्थान इसी से मिलता-जुलता उपसर्ग सहनका पाठ मिलता है।६० जब भोजन या स्थान के लिये भगवान महावीर किसी गाँव में पहुँचते तो, गाँव में रहनेवाले लोग मारते, पीटते और कहते यहाँ से दूर चले जाओ। वे उनको दंडोंसे मुक्कों से, भालों की तीखी नोंकसे, मिट्टी के ढेलोंसे या कंकरों और पत्थरों से उन पर प्रहार करते, तथा बहुत कोलाहल करते । कभी - कभी उनके शरीर का मांस नोंच लेते । उनके उपर धूल बरसातें। उन्हें उपर उठाकर नीचे पटक देते । आसन से गिरा देते किंतु भगवान महावीर शरीर का ममत्व त्यागकर सब सहते हु अपने लक्ष्य के प्रति अविचल रहते।६१ । दूसरे श्रुत स्कंध में सोलह अध्ययन हैं। वे तीन चूलिकाओं में विभक्त हैं। पिंडैषणा नामक अध्ययन में साधु साध्वियों के आहार विषयक नियमों का विस्तारसे वर्णन हैं। शैया अध्ययनमें आवास स्थान के गुणदोषोंका तथा गृहस्थ के साथ रहने में लगनेवाले, दोषों का वर्णन है। (२३)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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