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आगम केवल अक्षररूपी देहसे विशाल और व्यापक ही नहीं, लेकिन ज्ञान और विज्ञान के, न्याय और नीतिके, आचार और विचार के धर्म और दर्शनों के, अध्यात्म और अनुभवों के अनुपम और अक्षय कोष है।
वैदिक परंपरामें जो स्थान वेदका है, बौद्ध परंपरामें जो स्थान त्रिपिटक का है, ईसाई धर्मे में जो स्थान बाईबल का है, इस्लाम धर्म में जो स्थान कुराण का है, पारसी धर्म में जो स्थान अवेस्ता का है, शीख धर्म में गुरू ग्रंथसाहेबा का जो स्थान है, वही स्थान जैन परंपरामें आगम साहित्य का है।४९
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आगमों का संकलन प्रथम वाचना
जैन परंपरामें ऐसा माना जाता है कि भगवान महावीर के निर्वाण के लगभग १६० वर्ष पश्चात् (३६७ इ. स. पूर्व) चंद्रगुप्त मौर्य के शासन काल में भयंकर अकाल पड़ा। साधु, इधर-उधर बिखर गये। संघ को चिंता हुई कि- आगमों का ज्ञान यथार्थ रूपमें चलता रहें, इसका प्रयास किया जाए। दुष्काल समाप्त हो जानेपर पाटलीपुत्र में आचार्य स्थूलभद्र के नेतृत्व में साधुओं का एक सम्मेलन किया गया। साधुओं ने अंग आगम के पाठ का मिलान किया। बारहवाँ अंग दृष्टिवाद किसी को भी याद नहीं था। इसलिये उसका संकलन नहीं हो सका । दृष्टिवाद में पूर्वो का ज्ञान था। आगमों के संकलनका यह पहला प्रयास था। इसे आगमों की प्रथम वाचना कहा जाता है।
उस समय चतुर्दश पूर्वो के धारक केवल आचार्य भद्रबाहु थे। वे नेपालदेशमें महाप्राण ध्यान की साधना कर रहे थे। उनसे पूर्वो का ज्ञान प्राप्त करने हेतू संघने १५०० मुनियों को उनके पास नेपाल भेजा। ५०० मुनि पढ़नेवाले थे। १००० मुनि उनकी सेवा हेतु थे। अध्ययन चालु हुआ। अध्ययन की कठीनता से घबराकर स्थूलभद्र के अतिरिक्त बाकी सब मुनि वापस लौट आये।
स्थूलभद्रने दस पूर्वोका अर्थसहित अध्ययन कर लिया किंतु किसी त्रुटी के कारण आचार्य भद्रबाहु ने चार पूर्वोका केवल पाठ रूपमें अध्ययन करवाया, अर्थ नहीं बताया। इस प्रकार स्थूलभद्र दश पूर्वो के परिपूर्ण ज्ञाता थे तथा चार पूर्वो का केवल पाठ जानते थे। आगे चलकर धीरे धीरे पूर्वोका ज्ञान लुप्त होता गया।५०
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