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१६) श्री शांतिनाथजी १७) श्री कुंथूनाथजी १८) श्री अरनाथजी १९) श्री मल्लिनाथजी २०) श्री मुनिसुव्रत स्वामीजी २१) श्री नमिनाथजी २२) श्री नेमिनाथजी २३) श्री पार्श्वनाथजी २४) महावीरस्वामीजी३१
श्री जैन-सिद्धांत बोल संग्रह भाग - ६ में चौबीस तीर्थंकरो के च्यवन, विमान, जन्मस्थान, जन्म, माता-पिता के नाम, लांछन एवं शरीरप्रमाण आदिका उल्लेख है।३२
तीर्थंकरों की ऐसी अनंत चौबीसियाँ हो चुकी है और होती रहेगी। ३३ तीर्थंकर एवं धर्मतीर्थ
तीर्थंकर शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण है । श्रमण-श्रमणी श्रमणोपासक तथा श्रमणोपासिका इन चारोंका समुदाय तीर्थ या धर्मतीर्थ कहा जाता है। तीर्थंकर अपने-अपने युगमें उसकी स्थापना करते है। वे सर्वज्ञ होते है क्यों कि उनके ज्ञानावरणीय कर्म दर्शनावरणीय कर्म, मोहनीय कर्म और अंतराय कर्म के क्षय होने से वे वीतराग, सर्वज्ञ केवली हो जाते हैं। वे धर्म देशना देते हैं। जिसमें तत्त्वदर्शन एवं आचार विधा का विवेचन होता है।
एक तीर्थंकर की परंपरा जब तक चलती हैं, तब उनकी वाणी के आधार पर ही सभी धार्मिक उपक्रम गतिशील होते है। वर्तमान युग में धर्मतीर्थ या जैनधर्म भगवान महावीर के द्वारा दी गई धर्म देशना या उपदेश के आधारपर गतिशील है।
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तीर्थंकरोंपदेश - आगम :
आगम विशिष्ट ज्ञान के सूचक है, जो प्रत्यक्ष बोध के साथ जुड़ा हुआ है। दूसरे शब्दोंमें ऐसा कहा जा सकता है कि - जिनका ज्ञान, ज्ञानवरणीय कर्म के अपगम या क्षय से सर्वथा निर्मल और शुद्ध हो जाता है । संशय और संदेह रहित होता है। ऐसे आप्त पुरूषों - सर्वज्ञ महापुरूषों द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतो का संकलन आगम है।३४
तीर्थंकर सर्वदर्शी सर्वज्ञाता होते है। क्योंकि उनके दर्शनावरणीय, ज्ञानावरणीय कर्म क्षीण हो जाते है। वे धर्म देशना देते हैं। जन-जन को धर्म के सिद्धांतोंका, आचार का, ज्ञान प्रदान करते हैं । एक-एक युगमें एक एक तीर्थंकर की धर्मदेशना चलती है। यद्यपि, तात्त्विक रूपमें तो कोई भेद नहीं होता, पर आगे होनेवाले तीर्थंकर अपने युग को अपनी वाणी द्वारा संबोधित करते हैं।
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