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उत्सर्पिणी का छठा आरक सुषम-सुषमा है। जो अत्यंत सुखमय है। अवसर्पिणी का प्रथम आरा इसके सदृश है।३०
समीक्षा
प्रकृति जगत् के वातावरण में क्षण-क्षण परिवर्तन होता रहता है। वह परिवर्तन अनेकमुखी होता है। उसके परिणाम स्वरूप जगतमें विद्यमान पदार्थ भी बदलते जाते हैं। पुद्गलात्मक परिणमन भी विविधतामय होता जाता है। उस परिवर्तन के अनुरूप जैविक जीव की स्थितियाँ भी विविध रूपमें प्रकट होती है। वहाँ परिवर्तन की धारा उत्कर्ष और अपकर्ष को लेकर द्विमुखी होती है। उसे उत्सर्पण और अवसर्पण द्वारा व्यक्त किया गया है। कालचक्र के दोनों रूपों के साथ क्रमश: यही भाव जुड़ा रहता है।
“उत्सर्पिणी प्रथम और अवसर्पिणका अंतिम काल अत्यधिक विकार युक्त होता है। सभी पदार्थ दुर्गति और दूरवस्था लिये रहता है। वैसी घोर पापमय स्थितियों पर सोचते हुए व्यक्ति के अंत:करण में यह भाव उत्पन्न होता है कि-अपनी अनुकूल जिस स्थिति में वह है वैसी नहीं है, उसको उसका लाभ लेते हुए धर्माचरणमें लीन रहना चाहिये।
कालचक्र के स्वरूप के परिशीलन से जगत की विचित्रता और विषमता का बोध होता है, * और इस भ्रमणशील काल चक्र को पार कर परमसुख को प्राप्त करना उससे मानव आत्मावलोकन में उत्प्रेरित होता है।
तीर्थंकर एवं धर्मतीर्थ
वर्तमान अवसर्पिणी के तीसरे चौथे आरेमें चौबीस तीर्थंकर हुए है, जो निम्नांकित है - १) श्री ऋषभदेवजी २) श्री अजितनाथजी ३) श्री संभवनाथजी ४) श्री अभिनंदन स्वामीजी ५) श्री सुमतिनाथजी ६) श्री पद्मप्रभुजी ७) श्री सुपार्श्वनाथजी ८) श्री चंद्रप्रभुजी ९) श्री सुविधिनाथजी १०) श्री शीतलनाथजी ११) श्री श्रेयांसनाथजी १२) श्री वासुपुज्यस्वामीजी १३) श्री विमलनाथजी १४) श्री अनंतनाथजी १५) श्री धर्मनाथजी
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