________________
पंचम आरेको दु:षम कहा गया है । इसका अर्थ यह है कि - वह सर्वथा दुःखमय होता है। उसमें सुख नही होता। इस आरेमें वर्णादि पर्यायोंमे अनंतगुणा हीनता आ जाती है। क्रमश: हास होते जाता है।
___ छठे आरक में दुःख की अत्यधिकता हो जाती है तथा वह घोर दुःखमय होता है, इसलिये इसे दु:षम-दुषमा कहा गया है। दुषम शब्द का दोबार प्रयोग उसकी घोर दु:खमयता का सूचक है। __अवसर्पिणी काल का प्रथम आरक अत्यंत सुखमय और अंतिम आरक अत्यंत दु:खमय होता है। उसकी पराकाष्ठा क्रमश: घटती घटती दुःखकी पराकाष्ठामें परिवर्तित होती है।
उत्सर्पिणी काल के छह आरे
अवसर्पिणी काल के पश्चात् उत्सर्पिणी काल आता है। उसका गतिक्रम अवसर्पिणीसे सर्वथा विपरीत या उलटा होता है। अवसर्पिणी के अंतिम आरक दुषम-दुषमा के समान ही उत्सर्पिणीका प्रथम आरक होता है। जिस प्रकार अवसर्पिणी में क्रमश: सुख घटता जाता है
और दु:ख बढ़ता जाता है। उसी प्रकार उत्सर्पिणी में दुःख घटता जाता है और सुख बढ़ता जाता है। जिस अवसर्पिणी का अंतिम आरक नितांत दु:खमय होता है उसी प्रकार उत्सर्पिणीका प्रथम आरक घोर दुःख पूर्ण होता है, इसलिये उसका नाम भी दुषम-दुषमा है।
___ अवसर्पिणी के पंचम आरे समान उत्सर्पिणीका द्वितीय आरक होता है। दोनों की संज्ञा दुषमा काल है। दोनों दु:खमय है। उत्सर्पिणीके दुषम नामक दूसरे आरेमें भरतक्षेत्रमें सर्वत्र पांच प्रकार की वृष्टि होती है। वनस्पतियों में पाँच रसों की उत्पत्ति होती है।
__ उत्सर्पिणी का तीसरा आरक दु:ख की बहुलता और उसकी अपेक्षा सुखकी अल्पता का काल है। वह दुःषम-सुषमा नामक है । वह अवसर्पिणी काल के चौथे आरेके समान इसमें प्रथम तीर्थंकर का जन्म होता है।
उत्सर्पिणी का चौथा आरक सुषम-दुषमा काल है। उसमें सुख अधिक है, और दुःख कम है। इसमें चोबीसवे तीर्थंकर मोक्षमें जाते है। वर्णादि शुभ पर्यायोंमे वृद्धि होती है। उसी प्रकार अवसर्पिणीका तीसरा काल है।
उत्सर्पिणीका पांचवा सुषमा काल है; जो सुखमय है। उसी प्रकार अवसर्पिणी का दूसरा काल सुखमय है। इसमें वर्णादि शुभपर्सयो की वृद्धि होती है।
(१३)