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वीरसेन नामक आचार्य ने इन पर 'धवला नामक' टीका की रचना की । इसमें संस्कृत और प्राकृत का मिश्रित रुप में प्रयोग है, जिसे मणि प्रवाल न्याय मूलक शैली कहा जाता है । जैसे मणियों और प्रवाल को एक साथ मिला दिया जाये तो भी वे पृथक् पृथक् दृष्टि गोचर होते है, उसी प्रकार इस रचना शैली में संस्कृत और प्राकृत अलग- अलग दिखाई
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पड़ते है ।
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दिगंम्बर परंपरा में आचार्य कुंदकुंद का भी बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्होने समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय तथा नियमसार आदि ग्रंथों की रचना की, जो आगम तुल्य माने जाते हैं। उनमें निश्चय, नय और शुद्धोपयोग की दृष्टि से अध्यात्म तत्व का बहुत ही सूक्ष् विवेचन हैं ।
जैन धर्म की सार्वजनीनता -
जैन धर्म जन्म, जाति, वर्ण, वर्ग, रंग, लिंग, देश आदि की संकीर्ण सीमाओं से प्रतिबद्ध नहीं है। वह आकाश की तरह व्यापक और समुद्र की तरह विशाल तथा गंभीर है।
उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है - कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है और कर्म से ही शूद्र होता है । २२
भगवान महावीर ने जन्मगत जातिवाद के विरुद्ध एक बहुत बड़ी क्रांति की । “एकैव मानुषी जाति रन्यत सर्व प्रपंचनम् ” मनुष्य जाति एक है । उसमें भेद करना प्रपंच मात्र है वास्तविकता नहीं है। भगवान महावीर के सिद्धांतों में मानवीय एकता का यह सूत्र फलित
था ।
भगवान महावीर के साधु संघ में सभी जातियों के व्यक्ति सम्मिलित थे । वहाँ साधु संघ में प्रविष्ट होने का आधार वैराग्य, त्याग और संयम था । भगवान महावीर स्वयं क्षत्रिय थे। उनके प्रमुख शिष्य ग्यारह गणधर, जो उनके श्रमण संघ के अंतर्गत भिन्न - भिन्न साधु समुदायों के संचालक थे, ब्राह्मण जाति के थे । वेद वेदांत के बड़े विद्वान थे । भगवान महावीर से प्रभावित होकर उन्होने जैन दीक्षा स्वीकार की ।
भगवान महावीर के साधु संघ में अछूतों तक के लिए, जिन्हें चांडाल कहा जाता था, प्रवेश पाने का द्वार खुला था । उत्तराध्ययन में हरिकेश मुनि का एक प्रसंग है, जो जाति से
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