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ऐतिहासिक दृष्टिसे देखें तो जैन धर्म पहले इस नाम से प्रचलित नहीं था, तो जैन धर्म के लिए 'निर्ग्रथ' शब्द का उपयोग किया जाता था । जैन आगमोंमें निग्गंथ शब्द प्रसिद्ध है । निग्गंध शब्द का संस्कृतरुप निर्ग्रन्थ है । निर्ग्रथ याने ( धन, धान्य इत्यादी) बाह्यग्रंथी और (मिथ्यात्व, अविरति, और क्रोध, मान, माया, लोभ इत्यादि) अंतरग्रंथी अर्थात् बाह्यांतर परिग्रहसे रहित संयमी साधु को निर्ग्रथ कहा जाता था । उन्होने कहे हुए सिद्धांतों को 'निर्ग्रथ प्रवचन' कहा जाता है ।
आवश्यक सूत्र में “निग्गंथं पावयणं” शब्द आया है । १६ पावयणं शब्द का अर्थ प्रवचन होता है । जिसमें जीवाजीव इत्यादि पदार्थोंका और ज्ञान, दर्शन इत्यादि रत्नत्रय साधना का यथार्थ रूप में निरुपण किया जाता है । शास्त्रानुसार बिंदुसार पूर्वतक का ज्ञान निर्ग्रथ प्रवचनमें समाविष्ट हुआ है। १७
रचना
जैन धर्म में चौबीस तीर्थंकर माने गये हैं, जो विभिन्न युगों में अनंत बार होते रहे हैं एवं होते हैं। वर्तमान युग के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर थे । उन द्वारा उपदिष्ट सिद्धांतों पर जैन धर्म आश्रित है । उन्होने धर्म परिषदों में अर्धमागधी, प्राकृत में जो उपदेश दिया, वह उनके प्रमुख शिष्योंद्वारा शब्दरुप में संकलित सुग्रंथित किया गया । १८ वही उपदेश आगमों के रूप में हमें प्राप्त है । उसेही द्वादशांगी वाणी कहते हैं । उसका संकलन, आकलन, गणधरोने की है।१९ वे अंगसूत्रके रुपमें हैं। 'अंगसूत्र' को समवायांग सूत्रमें गणिपिटक कहा गया है । जिसमें गुणों का समुदाय होता है ऐसे आचार्योका 'गणि' कहा जाता है । और पिटक याने पेटी, मंजूषा, पेटारा ऐसा अर्थ होता है। इसप्रकार श्रुतरत्नों की पेटी को गणिपिटक क हैं।२० ये अंग, उपांग, छेद, मूल तथा आवश्यक रूप में मुख्यत: बत्तीस आगम है । २१ श्वेताम्बर जैन परम्परा के सभी आम्नायोंद्वारा वे स्वीकृत है। उनमें साधुओं के व्रत, आचार, नियम, दिनचर्या, भिक्षाचर्या, रहनसहन, विहारयात्रा, तपश्चरण इत्यादि का तथा श्रमणोपासकों के व्रत, नियम आदि का वर्णन है । इन आगमों में तत्कालीन समाज, शासन, राज्य व्यवस्था, कृषि, सुरक्षा, व्यापार, कला, शिक्षा, यान, वाहन, भवन इत्यादि का भी बड़ा सजीव वर्णन है, जिससे देश की तत्कालीन स्थिति का यथार्थ परिचय प्राप्त होता है । वास्तव में ये आगम भारतीय साहित्य की अमूल्य निधि है ।
दिगम्बर परंपरा में षट्खंडागमों का विशेष महत्त्व हैं । धरसेन नामक आचार्य से, जिन्हें आंशिक रुप में पूर्वो का ज्ञान था, विद्याध्ययन कर भूतबली और पुष्पदंत नामक मुनि द्वय ने षट्खंडागम की रचना की । इसके छह भाग है इसलिए इन्हें षट्खंडागम कहा जाता है। इनमें जीव तत्व, कर्म सिद्धांत इत्यादि का बड़ा विस्तृत विवेचन है ।
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