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को चार भागों में बाँटा गया, जो आश्रम कहे जाते हैं।
विषय की दृष्टि से वेदों के कर्मकांड और ज्ञानकांड दो भाग है। कर्मकांड में यज्ञ, याग आदि का वर्णन है। वैदिक काल में यज्ञों का बहुत ही प्रचलन था। ‘स्वर्ग कामों यजेत्' अर्थात् जो स्वर्ग की कामना करता हो, उसे यज्ञ करना चाहिए। इस सिद्धांत के अनुसार अश्वमेध, राजसूय आदि अनेक प्रकार के यज्ञ किये जाते थे। यज्ञों में पशुओं की बलि भी दी जाती थी। ऐसा माना जाता था कि यज्ञ में हिंसित पशु स्वर्ग प्राप्त करता है। इसलिए "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" - अर्थात् वैदिक विधि के अनुसार यज्ञ आदि में की गई हिंसा, हिंसा नही मानी जाती थी। उसमें हिंसा का दोष नहीं लगता, किसी प्रकार का पाप नहीं होता; परंतु जैन धर्म को यह मान्यता मान्य नहीं है। क्योकि जैन धर्म अहिंसावादी धर्म है।
ज्ञानकांड में उपनिषद आते हैं। जिनमें आत्मा, परमात्मा, ब्रह्म, विद्या, अविद्या इत्यादि तत्त्वों का विवेचन है। आध्यात्मिक ज्ञान की दृष्टि से उपनिषदों का भारतीय साहित्य में बहुत महत्त्व
वेदों के अतिरिक्त स्मृतियाँ, धर्मशास्त्र, दर्शनशास्त्र, पुराण, इतिहास आदि के रूप में और भी विशाल साहित्य है, जिसमें वैदिक संस्कृति के आदर्शों का विवेचन है। विश्व प्रसिद्ध दार्शनिक डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार महर्षि गौर्धका न्याय, कणाद का वैशेषिक, कपिलका सांख्य, पातंजलका योग, जेमिनीका पूर्वमीमांसा और बादरायणका उत्तरमीमांसा अथवा वेदांत - ये सब वैदिक दर्शन के नाम से जाने जाते है क्योंकि ये वेदों की प्रामाणिकता को स्वीकार करते है।६
श्रमण संस्कृति
श्रमण संस्कृत शब्द है। उसका प्राकृत रूप 'श्रमण' है। इसके मूल में 'सम' है। संस्कृत के श्रम, शम तथा सम - इन तीनों शब्दों का प्राकृत में एक मात्र ‘सम' ही होता है। समण वह है जो पुरस्कार के पुष्प को पाकर प्रसन्न नहीं होता और अपमान के हलाहल से खिन्न नहीं होता, अपितु सदा मान, अपमान में सम रहता है। उत्तराध्यन सूत्र में कहा है - सिर मुंडा लेने से कोई समण नहीं होता, किंतु समता का आचरण करनेसे ही समण होता है।
सूत्रकृतांग सूत्र में समण के समभाव की अनेक दृष्टियोंसे व्याख्या करते हुए लिखा है - मुनिको गोत्र-कुल आदिका मद न कर, दूसरोके प्रति घृणा न रखते हुए सदा समभाव में रहना चाहिए। जो दूसरोंका अपमान करता है वह दीर्घकाल संसार में परिभ्रमण करता है।