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कर्ममय जीवन को सार्थक बनाते हैं। उत्तम विचार औरआचार का यह स्रोत उच्च कोटि के संस्कारों को जन्म देता है। वे संस्कार स्थिर, पवित्र और श्रेयस्कर होते हैं। संस्कारों की उस धारा को संस्कृति कहा जाता है। नि:संदेह भारतवर्ष सांस्कृतिक विकास और उन्नति की दृष्टि से बहुत ही सौभाग्यशाली रहा है। भारतीय संस्कृति राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध और गांधीकी है। राम की मर्यादा, कृष्ण का कर्मयोग, महावीर की सर्वभूत हितकारी अहिंसा और अनेकांत, बुद्ध की करूणा, गांधी की धर्मानुप्रणित राजनीति
और सत्य का प्रयोग ही भारतीय संस्कृति है। 'दयतां, दीयंता, दम्यताम्' - याने दया, दान और दमन ही भारतीय संस्कृति का मूल है।३
भारतमें जन्म लेनेवालों का आचरण और व्यवहार इतना निर्मल और पवित्र है कि उनके पावन चरित्र की छाप प्रत्येक व्यक्ति पर पड़ी। एतदर्थ ही आचार्य मनुने कहा है -
एतद्देश प्रसूतस्य, सकाशादग्रजन्मनः।
स्वं- स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवा ॥४ यहाँ वैदिक, जैन और बौद्ध परंपराओं के रूप में संस्कृति की त्रिवेणी संप्रवाहित हुई, वह अत्यंत गौरवपूर्ण है।
इन तीनों सांस्कृतिक धाराओं को वैदिक संस्कृति और श्रमण संस्कृति के रूपमें दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। इनका संक्षिप्त परिचय निम्नांकित है। वैदिक संस्कृति
वैदिक संस्कृति, ब्राह्मण संस्कृति के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ ब्राह्मण शब्द बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। ब्राह्मण संस्कृतिमें संन्यासी एकाकी साधना के पक्षधर रहे, उन्होंने वैयक्तिक साधनाको अधिक महत्त्व दिया है। वे एकांत शांत वनोंमें,आश्रम में रहते थे। उन आश्रमों में अनेक ऋषिगण भी रहते थे । पर सभी वैयक्तिक साधना ही करते थे और जो ब्रह्म या परमात्मा को जानता है या ब्रह्म की उपासना करता है, उसे ब्राह्मण कहा जाता है। ब्राह्मण संस्कृति के आधार वेद है। वेद शब्द संस्कृत की विद् धातु से बना है, जो ज्ञान के अर्थ में है। वेद में उन सिद्धांतों का वर्णन है, जो मानव को ज्ञान द्वारा सन्मार्ग दिखलाते है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, एवं अथर्ववेद के रूप में वेद चार हैं। वेदों को श्रुति भी का कहा जाता है क्यों कि इनको गुरू से सुनकर शिष्य अपनी स्मृति में रखते थे।
वैदिक संस्कृति या धर्म के अंतर्गत ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र - इन चार वर्गों में समाज को विभक्त किया गया। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास के रूप में जीवन
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