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वास्तव में परमशुद्धावस्था में तो परमात्मा ही है। तीसरा ‘तत्त्वमसि' यह वाक्य आत्मा को संबोधित कर कहा गया है।
अविद्यायुक्त जीव अपने को ब्रह्म से भिन्न मानता है। यह उसका अज्ञान है । उसी अज्ञान को मिटाने के लिये यह महावाक्य है, जिसमें जीव को संबोधित कर यह ज्ञापित किया गया है कि तुम वही हो, जो परमात्मा है। अपने को उनसे भिन्न, हीन, तुच्छ मत समझो । चौथे महावाक्य मे तीनों वाक्यों का निष्कर्ष है।
नवकार मंत्र 'तत्त्वमसि' द्वारा जीव को स्मरण कराता है, उद्बोधन देता है कि - हे जीव ! तुम अपने को अन्य क्यों समझते हो ? तुम तो वास्तव में परमात्मा हो । कर्मो के आवरणों ने तुम्हारे शुद्ध स्वरूप को आच्छादित कर रखा है, उन आवरणों को हटा दो। तुम्हें तत्त्वमसि की सहज अनुभूति प्राप्त होगी।३५३
अनुचिंतन
टेलिफोन या दूरभाष की प्रक्रिया आज के विज्ञान जगत को अद्वितीय देन है किन्तु णमोक्कार मंत्र मूलक आध्यात्मिक प्रक्रिया की उससे भी बड़ी देन हैं। टेलीफोन की प्रक्रिया से तो हम भौतिक जगत् के व्यक्तियों से ही अपने वार्तालाप का संपर्क जोड़ सकते हैं। भौतिक वस्तुएँ समस्त लौकिक संबंध, चर्चाएँ, विचार-विमर्श, इनमें से कुछ भी शाश्वत नहीं है। सब विनाशयुक्त है। उन्हें क्षणभंगुर कहा जाये तो भी अत्युक्ति नहीं होगी।
___ मोहवश, लोभवश, भौतिक उपलब्धियों को हम बहुत बड़ा मानते है, किन्तु वास्तविक दृष्टि से उनमें कोई बड़प्पन नहीं है। बड़प्पन या महत्त्व तो उस वस्तु का होता है जो शाश्वत् हो, शांतिप्रद हो, श्रेयस्कर हो।
___ संसार के किसी बड़े से बड़े राष्ट्रनायक, धनकुबेर या सत्ताधीश से संपर्क साध लेने, वार्तालाप कर लेने से ऐसा कुछ भी प्राप्त नहीं होगा। जो आध्यात्मिक निधि का रूप ले सके। उन तथाकथित बड़े लोगों के स्वयं के पास भी तो ऐसी कोई दिव्य, महत्त्वपूर्ण, अविनश्वर वस्तु नहीं है, फिर वे हमें क्या दे सकते है ?
णमोक्कार महामंत्र रूप टेलीफोन या दूरभाष से जुड़नेवाले संपर्क की महिमा का , उपादेयता का वर्णन नहीं किया जा सकता है। इनसे सम्पर्क साधनेवाले को वे अपने जैसा महान बना देते है, किन्तु सम्पर्क साधनेवाले में तीव्र उत्कंठा, जिज्ञासा, तितिक्षा तथा मुमुक्षों का भाव अनवरत रहना चाहिए।
इस भावधारा की पवित्रता साधक के आंतरिक कालुष्य को प्रक्षालित कर उसे निर्मल
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