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परमात्मा के साथ डायरेक्ट लाईन में क्या बातचीत होती होगी ? यह प्रश्न मुमुक्षु के मन में उत्पन्न हुए बिना नहीं रहता ।
सांसारिक देव उपासना करनेवालों की इच्छाओं को पूर्ण करते हैं, किन्तु वे देव अपना स्वयं का स्वरूप उपासकों को नहीं देते। जबकि परमात्मा अरिहंत भगवान् 'निजस्वरूप के दाता' है। जब भक्त अपना तन, मन, धन, वचन तथा भाव, जो कुछ उसे प्राप्त है, वह सब परमात्मा के चरणों में समर्पित कर देता है तो परमात्मा उसके बदले भक्त को परमात्मा पद प्रदान करते है ।
यह आदान-प्रदान के नियम (Law of receiving and giving) का प्रतीक है। इसी कारण अरिहंत प्रभु अपने स्वरूप के दाता कहे जाते है ।
भक्त जब ‘णमो अरिहंताणं' कहता है, तब भगवान् 'तत्त्वमसि' जिसको तू नमस्कार करता है, वह तू ही है, ऐसा भाव प्रदान करते है । ३५२
'तत्त्वमसि' यह वाक्य उपनिषद् वाड़मय में सुप्रसिद्ध है । वहाँ चार महावाक्यों का उल्लेख है - १) प्रज्ञानं ब्रह्म २) अहं ब्रह्मास्मि ३) तत्त्वमसि ४) अयमात्मा ब्रह्म । ३५३
इन चार वाक्यों में पहला वाक्य प्रधान या विशिष्ट ज्ञान का सूचक है। ज्ञान विशिष्टता तब प्राप्त करता है, जब वह परिपूर्ण होता है। परिपूर्ण ज्ञान द्वारा ही आत्मा परमात्मा का रहस्य समझा जा सकता है।
शुद्धावस्था में ब्रह्म है । इसलिये अपने आप को वैसा ही समझे । ये चारों महावाक्य जीव और ब्रह्म के ऐक्य के सूचक है ।
जैन दर्शन की भाषा में कर्म - मुक्त आत्मा और कर्म - युक्त आत्मा का रहस्य इनमें समाया हुआ है । कर्म-मुक्त और कर्म - युक्त आत्मा शुद्ध स्वरूप - दृष्टि से सर्वथा एक समान है। जो कर्म-युक्त हैं वे संसारावस्थित है तथा जो कर्ममुक्त है, मोक्षावस्थित है । मूलस्वरूप की दृष्टि से दोनों में भेद नहीं है । उपनिषद् का चौथा महावाक्य इसी आशय का प्रतिपादक है।
जब जीव अपने शुद्ध स्वरूपात्मक ज्ञान से ओतप्रोत हो जाता है, तब उसकी भेद दृष्टि मिट जाती है । उसे आत्मा-परमात्मा के अभेद का ज्ञान हो जाता है। वह परमज्ञानात्मक दशा परमात्मभाव या ब्रह्म है । इसीलिये प्रज्ञान को ब्रह्मरूप में प्रतिपादित किया गया है। दूसरा वाक्य ‘अहं ब्रह्मास्मि’ इस भाव का द्योतक है कि - जब जीव प्रज्ञानावस्था में परिणत जाता है, उसे अपने शुद्ध स्वरूप का परमात्मभाव का साक्षात्कार होता है और तब मैं बह्म या परमात्मा हूँ, ऐसी आंतरिक अनुभूति होती है ।
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