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अपना आयुष्य पूर्ण कर जब एक गति से दूसरी गति में जाता है, तब उसके साथ तेजस और कार्मण दो शरीर होते है । ये जीव के साथ अनादिकाल से चले आ रहे 1 हैं। उनमें कार्मण शरीर का अभिप्राय आत्मा के साथ संश्लिष्ट कर्म समूह से हैं। कोई भी जीव जिस प्रकार का कार्मण शरीर लेकर आता है, उसी प्रकार का बाह्य शरीर तथा साधन उसे प्राप्त होते हैं'। यदि उस जीव में पुण्यों की प्रबलता होती है, तो उसका कार्मण शरीर पुण्यानुबंधी कहा जाता हैं। वह पुण्यों में उत्तम पदार्थों में, उत्तम कार्यों में रूचि उत्पन्न करता है । वह मोक्षानुकूल उत्तम सामग्री प्राप्त कराने का अनन्य हेतु होता है ।
जीव अनादिकाल से कर्म के कारण परतंत्र है। वह सहज तया अशुभ कर्मों में तन्मय हो जाता है। शुभ आलंबन के बिना वह अशुभ भावना से दूर नहीं हो सकता, तथा शुभ आलंबन पुण्यानुबंधी पुण्य के बिना प्राप्त नहीं होते।
जीव को समस्त कर्मों से रहित बनना है । वही उसका परम, चरम, ध्येय है किंतु इस अंतिम ध्येय को प्राप्त करने के बीच में एक ऐसी अवस्था में से गुजरना पड़ता है, जो पुण्यानुबंधी कर्तव्यों द्वारा आत्मा को अंतिम लक्ष्य की ओर प्रेरित करती है ।
इस तथ्य को एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है। एक चित्रकार के मन में दीवार पर चित्र बनाने की अभिलाषा जागृत होती है। इस कार्य हेतु सब से पहले उसको दीवार को ठीकरना आवश्यक होता है। उसमें विद्यमान खुरदरापन, गढ्ढे आदि दूर करना, भित्ति को समतल, कोमल और स्वच्छ बनाना अपेक्षित होता है। यह सब कर लेने के अनंतर चित्रकार उस भित्ति पर चित्रांकन करता हैं । फलत: चित्र बहुत सुंदर बन जाता है।
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इस तथ्य का विश्लेषण करें, तो यहाँ तीन अवस्थाएँ दृष्टि गोचर होती हैं । उनमें पहली अवस्था वह हैं, जिनमें भित्ति के चित्र के अयोग्य थी ।
दूसरी अवस्था वह है जिसमें भित्ति को चित्र के योग्य बनाया ।
तीसरी अवस्था वह है, जिसमें भलिभाँति चित्र बना । यदि चित्र बनने से पूर्व भित्ति उपयुक्त नहीं बनाया जाता, तो चित्र कदापि सुंदर नहीं बन सकता था। उसी प्रकार जीव अनादिकाल से अशुभ भावों में अनुरक्त बना है । अत: उसे पहले पुण्यानुबंधी पुण्योंद्वारा उत्पन्न होनेवाले उत्तमोत्तम निमित्तों के शुभभाव में लाना आवश्यक हैं। जीव में शुभ भाव आने के पश्चात् शुद्ध-भाव रूपी रंग चढ़ सकता है।
यहाँ तीन स्थितियाँ निष्पन्न होती है - अशुभ भावों का वर्जन, शुभ भावों का ग्रहण शुभभावों से शुद्ध भावों में गमन । शुद्ध भावों का साक्षात्कार होना, मोक्षानुगामी साधना का उत्तम उपक्रम हैं । इस प्रकार शुभ भाव या पुण्यानुबंधी पुण्य, मोक्ष के अनुकूल उत्तम कार्यो में
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