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________________ पावपणासणो' इसी का सूचक है। मोहनीय कर्म में दर्शन मोहनीय बड़ा बलवान है । नवकार मंत्र के प्रथम पद " नमो अरिहंताणं" के उच्चारण तथा स्मरण से दर्शन मोहनीय कर्म को जीता जा सकता है। दर्शन मोहनीय का अर्थ आत्मधर्म के विपरीत मिथ्या श्रद्धान है । अरिहंत देव को शुद्ध भाव से नमस्कार करने से जीव सम्यक्त्व प्राप्त करता है। उसकी विपरीत मान्यता नष्ट हो जाती है। सत्य धर्म के प्रति, आत्मस्वभाव के प्रति उसकी आस्था सुदृढ़ होती है । उसकी रूचि उन्मार्ग से हटती है, सन्मार्ग में आती है। सामान्यत: संसार में भी नमस्कर का उत्तम फल होता हैं। यह नमस्कार तो परमोत्तम महापुरुषों को है। इसका फल नि:संदेह आत्म श्रेयस्कर होता हैं । नमस्कार के विषय भूत अरिहंत भगवान हैं। उनको भाव नमस्कार करने से आत्मसामर्थ्य उद्भाषित होता हैं । अनादिकाल से चला आता मिथ्यात्व दर हो जाता है। वास्तव में नवकारमंत्र आत्यधिक शक्तिपुंज है, यह कह का सर्वथा उचित है। ના मोहन का प्रथम भेद दर्शन मोह है, तथा द्वितीय भेद चारित्र मोह हैं । चारित्र मोह के भेदों मे क्रोध, मान, माया तथा लोभ ये चार मुख्य हैं । नवकार मंत्र के पदों से इन चारों का विजय किया जा सकता है । ३४८ | ३४७ “ णमो लोए सव्व साहूणं” से क्रोध को जीतने का बल व्यक्त होता है । जिन्होंने भाव साधुत्व को प्राप्त किया है, वे मुनिगण क्षमा द्वारा क्रोध को जीतने हेतु तत्पर हुए हैं। इसलिए उन्हें क्षमण कहा जाता है। उनके आश्रय में आनेवाले अन्य जन भी उनकी प्रेरणा से, प्रभाव से क्रोध को जीतने में सफल होते हैं, क्योंकि उनमें साधुओं के सान्निध्य क्षमा गुण का प्रादुर्भाव है| जाता है। “णमो उवज्झायाणं” पद द्वारा मान या अहंकार रूप कषाय अपगत हो जाते हैं । नम्रता गुण उत्पन्न होता है । उपाध्याय स्वयं विनय गुण से विभुषित होते हैं । जिन्होने जिस गुण आत्मसात कर लिया हो, उनके समीप बैठने से, औरों में भी वह गुण प्रकट होता है । जैसे तीर्थंकर देव के समवशरण में उपस्थित वे प्राणी भी जिनमें जन्म जात वैर होता है उसे भूल जाते है और शांत हो जाते है क्योंकि तीर्थंकर देव अहिंसा और समता के सजीव प्रतीक होते है । अहिंसा का ऐसा ही प्रभाव होता है। महर्षि पंतजलिने योग सूत्र में लिखा है : I “अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः || ” जब जीवन में अहिंसा की प्रतिष्ठा हो जाती है, अहिंसा व्याप्त हो जाती है, तो अहिंसक के आसपास का वातावरण इतना पवित्र हो जाता है कि वहाँ उपस्थित सभी प्राणी पारम्पारिक वैर भाव भूल जाते है । ३४९ - (२८७)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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