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आराधक के लिये पंच परमेष्ठियों की पहचान करना आवश्यक हैं। वैसा कर उन्हें नमस्कार करना अपेक्षित है। इस प्रकार यदि ज्ञान पूर्वक, पहचान पूर्वक नमस्कार करना आ जाता है, तो साधक के लिए सभी पदार्थ सिद्ध हो जाता है।३१०
श्रद्धापूर्वक नवकार मंत्र के स्मरणद्वारा पुन: पुन: उसके जप द्वारा अनुत्प्रेक्षा और स्वाध्याय की योग्यता आती है, तथा उससे ज्ञान का प्रकाश व्यक्त होता है।३११
नवकार मंत्र के बिना तपश्चरण, चारित्र और शास्त्र ज्ञान निष्फल कहा गया है। यदि नवकार की आराधना नहीं होगी तो, कृतज्ञभाव नहीं होगा ।नवकार की आराधना के बिना तप आदि उसी प्रकार मूल्य रहित है जिस प्रकार अंकविहीन, केवल शून्य युक्त संख्या होती है। नवकार मंत्र से होनेवाला कृतज्ञभाव जीवन के लिए बहुत उपयोगी है। सम्यकत्व गुण भी कृतज्ञभाव का द्योतक है। सम्यकत्व में देव, गुरु, तथा धर्म के प्रति भक्ति एवं श्रद्धा का भाव नमन एवं बहुमान है। ये तीनों तत्व आत्मा के लिए अत्यंत उपकारी है। मन में ऐसे भाव लाने से सभी शुभ, उत्तम एवं सुखप्रद पदार्थ प्राप्त होते हैं। उन तीनों का स्मरण करना, उनके प्रति विनय व्यक्त करना कृतज्ञता है। कृतज्ञता कल्पवृक्ष है। वह नमस्कार में प्रकटीत है। कर्तव्यता कामकुंभ है। उससे सभी सद्इच्छायें पूर्ण होती है। वह क्षमापना है। नवकार से सुकृतों का, पुण्यात्मक भावों का अनुमोदन होता है। क्षमापना से दृष्कृतों की, पापों की गर्दी होती है।
तीर्थंकर भगवंतों का, सिद्ध परमात्मा का ज्ञानी महा-महापुरुषों का, साधुसंतों का हम पर बड़ा उपकार है, ऋण है। उन्होंने धर्म देशना, शिक्षा आदि के रुप में हमें बहुत प्रदान किया है और करते रहते हैं। उनके प्रति श्रद्धा और भक्ति प्रकट करना कृतज्ञता है । वह एक ऐसा गुण है, जो ऋण मुक्ति की भावना उत्पन्न करता है। ऋण मुक्ति और कर्म मुक्ति-इन दोनों का नवकार में समन्वय है इनसे अव्याबाध, परम सुख स्वरूप मोक्ष प्राप्त होता है जो योग्य को, पूज्य को नमन करता है, उसका जीवन उन्नत और विकसीत होता है। मनुस्मृतिमें ऐसा कहा है कि -
अभिवादनशीलस्य, नित्यं वृद्धापसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्द्धन्ते, आयुर्विद्या यशोबलम् ।। जो बड़ों को गुरुजन को, महापुरुषों को अभिवादन मनन या नमस्कार करता है तथा वृद्धजनों की सदा सेवा करता है। उसकी आयुर्विद्या यश और शक्ति इन चारों की वृद्धि होती है।
पारस्पारिक सहयोग एक दूसरे का उपकार, उपकार के प्रति आभार या कृतज्ञभाव इन्हीं के आधार पर सांसारिक प्राणियों का जीवन टीका हुआ है । आचार्य उमास्वाति ने "परस्परो - पग्रहो जीवानाम सूत्र द्वारा यह प्रगट किया है कि सभी जीव आपस में एक दूसरे के
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