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उन्होने योगशास्त्र की टीका में इसका स्पष्टीकरण करते हुए उल्लेख किया है कि - परोपकार परायण पुरुष सभी के नेत्रों में अमृतांजन जैसा प्रिय लगता है।३०२ ___धर्मरत्न प्रकरण में धर्म के प्राप्ति के ग्यारह गुणों का उल्लेख हुआ है। वहाँ ‘परहित्थकारी' शब्द आया है। इसका अर्थ दूसरों का हित या भलाई करने वाला है। वैसा जीव धर्मरुपी रत्न को प्राप्त करने योग्य होता है। वहाँ सोपज्ञ विवरण में इसका अर्थ स्पष्ट करते हुए बतलाया है -
__ यो हि प्रकृत्यैव परेषां हितकरणे निरन्तरं ।
रतो भवति, स धन्यो धर्मधनार्हत्वात् ।। अर्थात् जो स्वभाव सेही दूसरों का हित करने में निरंतर तत्पर रहता है, वह धन्य है। धर्मरुपी धन के लिए वे योग्य हैं, वह धर्म का सच्चा अधिकारी हैं।३०३
धर्म बिंदू में भी परोपकार की उपादेयता का उल्लेख हुआ है।३०४ टीका में कहा गया है कि परोपकार समस्त धर्मानुष्ठनों में उत्तम हैं।३०५
दशवकालिक सूत्र में भी सभी प्राणियों को आत्म मुल्य समझते हुए, उनके प्रति उपकृति परायणता का उल्लेख किया है। आत्मवत् सर्व भूतेषु ३०६
वैदिक धर्म के पुराणादि ग्रंथों में भी परोपकार के महत्त्व का उल्लेख हुआ है। इस संबंध में निम्नांकित श्लोक प्रसिद्ध है।
अष्टादशपुराणेषु, व्यासस्य वचनद्वयम् ।
परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम् ।। अर्थात् अठराह पुराणों में मुख्य रुप से महर्षि व्यास ने दो ही बातें कही है - परोपकार से पुण्य होता है और दूसरों को पीड़ा देने से पाप होता है।३०७
नीतिशास्त्र में कहा गया है - 'नदियाँ अपना जल स्वयं नहीं पीती, वृक्ष अपने फल खुद नहीं खाते, बादल अपने द्वारा की गई वृष्टि से उत्पन्न धान्य को स्वयं नहीं खाते । सत्पुरुषों की संपत्तियाँ दूसरों के परोपकार के लिए होती है। ३०८
परमेष्ठि भगवंतों का प्राणियों पर अत्याधिक उपकार है। जिसके प्रति कृतज्ञ रहना प्रत्येक साधक का कर्तव्य है। जो कृतज्ञभाव पूर्वक नवकार की आराधना करता है, उसका आत्मबल बढ़ता है।
नवकार मंत्र की फलवत्ता के संबंध में लिखा गया है - ‘मंत्र से ही मन का बल विकसित और संवर्धित होता है। नवकार मंत्रों में सर्व श्रेष्ठ महामंत्र है। काम, क्रोध, लोभ, राग, द्वेष, तथा मोह रुपी आंतरिक शत्रु उसके द्वारा जीत लिये जाते हैं। ३०९
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