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________________ लेश्या की ओर प्रगति कर सकेगा । शुभभावनाओं उसके दिल और दिमाग को विशुद्ध करेगी, और वह परमपद प्राप्त कर सकेगा। जीवन के अंतिम क्षण यदि वह शुभ लेश्यामें व्यतीत कर सकता है तो उसका आगामी भव शुभ गति में उच्चगति में होगा। इतनाही नहीं, यदि शुक्ल लेश्या के भावों में मृत्यू होती है तो पुनर्जन्म का कोई प्रश्न ही नहीं रहता, . क्योंकि ज्ञानियों मे शुक्ल लेश्या को अलेश्या ऐसी भी संज्ञा दी है । 1 जैन तत्त्वज्ञान का लेश्या बहुत महत्त्वपूर्ण अभ्यासविषय है। विद्वानों ने इस विषय की गहराई से चर्चा की है लेकिन मनोविज्ञान के साथ भी लेश्या का घनिष्ठ संबंध है । मन के शुभ-अशुभ भावों अथवा परिणाम लेश्या का रूप लेते हैं। मानव का मन ही मानव को उत्थान या पतन की ओर ले जा सकता है । मन के अध्यवसायों की विशुद्धि लेश्या का उत्तम फल प्रदान कर सकती है। हमें भी अपने जीवन में अशुभ लेश्याओं का त्याग करके शुभ श्याओं का स्वीकार करना चाहिए और आगामी भव उन्नत बनाने के लिए सम्यक् पुरुषार्थ करना चाहिए।२८३ प्रशमरति प्रकरण में लेश्या का वर्णन प्रशमरति प्रकरण में बंध के प्रसंग में लेश्याओं का वर्णन करते हुए कहा गया है : योग से प्रदेश बंध होता है । कषाय से अनुभाग बंध होता है और लेश्या की विशिष्ट से स्थिति और विभाग में विशेषता आती है। कृष्ण, नील, कापोत, तैजस, पद्म और शुक्ल लेश्या के ये छह भेद हैं। जैसे सरेश से रंग पक्का और स्थायी हो जाता है, उसी प्रकार लेश्याओं भी कर्म बंध की स्थिति को दृढ करती है । २८४ • आत्मा का परिणाम विशेष लेश्या कहा जाता है। जामुन खाने के इच्छुक वह व्यक्तियों दृष्टांतद्वारा समझाया गया है । जामुन का एक बड़ा वृक्ष था उस पर जामुन लगे थे। छह मनुष्य जामुन खाने की इच्छा वहाँ आये। पहले मनुष्य ने कहा हम इस पेड़ को जड़ से उखाड़ दें। यह जमीन पर गिर पड़ेगा, तब हम यथेच्छ रुप में जामुन खा लेगें। दूसरा बोला बड़ी - बड़ी डालियों को ही काट लें। तीसरे ने कहा बड़ी-बड़ी डालियाँ न काट कर छोटी टहनी क्यों न काट लें। चौथा बोला छोटी - छोटी टहनी को क्यों काटें, फलों के गुच्छों को ही तोड़ ले। पाँचवे ने का गुच्छों को भी तोड़ने की आवश्यकता नहीं है केवल पके हुए जामुन को ही हम नीचे गिरा दें। यह सुनकर छट्ठा बोला, जमीन पर बहुत से जामुन गिर हुए हैं, उन्हीं को ही हम खालें । २८५ (२६६)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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