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क्षणोंमें अशुभ लेश्या होती है। तो उसका भविष्य का भव भी अशुभ - अशुद्ध होता है। लेश्या परितर्वन याने जीव के मनोभाव का परिवर्तन, हमारा सबका यह अनुभव है कि - जिस तरह हमारे मन की मनोवृत्ति होती है वैसा ही रंग हमारे चेहरे पर दिखाई देता है । यह रंग भीतर की लेश्या का बाह्य आविष्करण है। वर्तमान मनोवैज्ञानिकोनें इसे मनकी वृत्तियों - अंतरसंवेदना का बाह्य अविष्करण कहा है। मन के भीतर के संवेदनों का इस तरह का बाह्य प्रगटीकरण किसी भी व्यक्ति की असलियत को पहचानने में उपयोगी होती है और हम अपनी अशुभ या मलिन वृत्तियों को, लेश्या को शुभ की ओर ले जा सकते है।
जैन धर्म कथामें प्रसन्न चंद्र राजर्षि का दृष्टांत लेश्या परिवर्तन का उत्तम दृष्टांत है।
प्रसन्न चंद्र राजर्षि जब संसार अवस्थामें थे तब अपने युवा पुत्र को राजगादी की धरोहर - जिम्मेवारी सोंपकर दीक्षा अंगीकार करता है और आत्म कल्याणके लिए उग्र तप की आराधना करता है। जिस रास्ते से राजा श्रेणिक भगवान महावीर के दर्शन को नीकलते है, उस रास्ते के नजदीक ही प्रसन्नचंद्र राजर्षी ध्यान कर रहे थे। उनकी उग्र ध्यान साधना को देखकर श्रेणिक राजा के मन में बड़ा आदरभाव जागृत होता है और इसी आदर भाव के साथ ही वे भगवान महावीर के चरणों में पहुँच जाते हैं। भगवान को वंदना नमस्कार करके वे नम्रता से प्रश्न पुछते है कि - "भगवान ! यदि इसी समय पर प्रसन्न चंद्र राजर्षि का आयुष्य समाप्त हो जाएं तो उसकी कौन सी गति हो सकती है ?" भगवानने उत्तर दिया, “सातवी नरक!" भगवान के इस उत्तर को सुनकर राजा श्रेणिक आश्चर्य चकित हो गये और थोड़ी देर के बाद प्रथम प्रश्न को दुहराया। इस समय पर भगवान ने उत्तर दिया - “सिद्ध गति की प्राप्ति ।" भगवान का यह उत्तर सुनकर राजा श्रेणिक बहुत हैरान हो गये और बहुत आदर से भगवान को प्रश्न किया कि - "इतने थोड़े समयमें इनकी गति का इतना बड़ा परिवर्तन कैसे ? भगवानने उत्तर दिया कि - हे श्रेणिक ! जब तुमने पहली बार प्रश्न पुछा तब उसी समय प्रसन्न चंद्र राजर्षि के मन के भीतर राग-द्वेष का बहुत भारी तुफान उठाया था। पुत्र के सुख की कल्पना के पीछे वे अपने आचारधर्म भी भूल गये थे। अशुभ लेश्याएं मन की भावधारा को अमंगल कर चूकी थी। पुत्र की रक्षा के लिए वे मनोमन युद्ध करने लगे थे और शत्रु को पराजित करने के लिए एक के बाद एक शस्त्रों का उपयोग हो जाने के बाद वे अपने मस्तक के मुगट को शस्त्र बना कर शत्रु पर फेंकना चाहते थे और क्षण आगे उन्हें याद आता है कि - मैं राजवी नहीं हूँ , संयमी हूँ। तपस्वी हूँ। मैंने कितनी बड़ी राग-द्वेष की पाप प्रवृत्ति की और इसी पर उनकी भावधारामें परिवर्तन आता है।" __ अशुभ लेश्यामे विदा लेती है। पश्चात्ताप की पावन गंगा उसे शुभ बना देती हैं, और शुभ से शुद्ध का आविष्कार होता हैं और उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति होती है।
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