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यह ध्यान की उच्च स्थिति है। जैन परिभाषा में वहाँ शुक्ल - ध्यान अधिगत होता है। शुक्ल शब्द ध्यान की सर्वाधिक निर्मलता का द्योतक है।
योग के आठों अंगों की सिद्धि के पश्चात जो कैवल्यावस्था प्राप्त होती है, वह णमोक्कार मंत्र आत्मा की वैसी परम शुद्धावस्था को बहुत ही सरलता से प्राप्त करने का एक सफल सिद्ध (approved)मार्ग हैं। इसमें अष्टांग योग सहज रुप में सिद्ध हो जाता है। योग आठों अंगो के माध्यम से जो प्राप्त कराता है, णमोक्कार मंत्र के स्मरण,जप, आराधन और ध्यान से वह शीघ्र सिद्ध हो जाता है। णमोक्कार अध्यात्म - योग का बीजमंत्र है। २६२
नवकार से लेश्या विशुद्धि का विश्लेषण
जैन दर्शन का लेश्या एक महत्त्वपूर्ण शब्द हैं। आत्मा के शुभ एवं अशुभ परिणामों के लिए इसका प्रयोग होता है। कर्म युक्त आत्मा को पुद्गल द्रव्यों के साथ धनिष्ट संबंध है। आत्मा की प्रवृत्तियों द्वारा शुभ एवं अशुभ पुद्गल गृहीत होते हैं। तथा वे उसके चिंतन को परिणामों को प्रभावित करते हैं। उसे द्रव्य लेश्या कहा जाता है। शुभ या उत्तम पुद्गल
आत्मा में उत्तम विचारों या प्रशस्त परिणामों के आने में सहायक बनते हैं तथा अधम या निम्न कोटि के पुद्गल आत्मा में दूषित विचारों या अप्रशस्त परिणामों के उत्पन्न होने में सहयोगी बनते हैं। अनुत्तम अशुभ या अनिष्टकारी पुद्गल आत्मा के शुद्ध विचारों को एकाएक परिवर्तित कर देते हैं। कहा गया है - कषाय और लेश्या का अविनाभाव है। जहाँ लेश्या है वहाँ कषाय है। परंतु जहाँ जहाँ लेश्या है वहाँ कषाय रहती है ऐसा नहीं है। केवल ज्ञानी में कषाय नहीं होती परंतु लेश्या परिणाम होते रहते हैं।२६३ ___जैन साहित्य में लेश्या शब्द बहुत प्रचलीत है। वह मनो वैज्ञानिक है। मनुष्य के मन की शुभ और अशुभ भावनाओं की अभिव्यक्ति उसके द्वारा होती है। ये बड़ी विशिष्ट बात है कि आचार्यों ने मन की भावना के अनुरुप रंगों की भी परिकल्पनायें की हैं । साधारण व्यवहार में भी मनुष्य की वृत्तियों तथा प्रवृत्ति के अनुसार उसकी मुखाकृति पर भी विविध भाव दृष्टि गोचर होते हैं। जैनाचार्यों ने उनभावों को छह भागों में विभक्त किया है, तथा लेश्या शब्द द्वारा उनकी व्याख्या की है ।२६४
मनुष्य के जीवन का आंतरिक तथा बाह्य निर्माण उसके परिणामों भावों, अध्यवसायों या मनोवृत्तियों के आधार पर निष्पन्न होता है। जिस व्यक्ति के जैसे अध्यावसाय होते हैं, परिणाम होते हैं उन्हीं के अनुसार उसके देह की कांति प्रभा या आभा बनती हैं। उन्हीं के अनुरुप उसके वर्ण, गंध, रस, स्पर्श होते हैं । राग -द्वेषात्मक एवं कषायात्मक आंतरिक
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