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है। इस प्रकार यह भावात्मक प्राणायाम एक साधक के लिए, उसकी आध्यात्मिक यात्रा में स्फूर्तिप्रद सिद्ध होता है।
प्रत्याहार :
यह योग का पाँचवाँ अंग है। इसका तात्पर्य इन्द्रियों को बाह्य वृत्तियों की ओर से उनसे संबंद्ध विषयों से हटाकर मन में विलीन करने का अभ्यास हैं। इसे साध लेने से साधक का मन - योगाभ्यास से विचलित नहीं होता।
जैन आगमों में प्रत्याहार के स्थान पर प्रतिसंलीनता शब्द का प्रयोग हुआ है। वहाँ भी प्रतिसंलीनता का यही तात्पर्य है, उससे उनकी दिशा परिवर्तित हो जाती है। जैन - आगमों में निर्जरा या तपश्चरण के बारह भेदों में इसे छठे भेद के रुप में स्वीकार किया गया है।
प्रत्याहारतक के योगों का अभ्यास शरीर, श्वासोच्छवास तथा इन्द्रियों को नियंत्रित करने का वशीकृत करने का मार्ग है। इतना हो जाने पर साधक आंतरिक सूक्ष्म - साधना मार्ग पर समुद्यत होने की योग्यता प्राप्त करता है।
धारणा, ध्यान और समाधि :
चित्त को किसी एक देश में या स्थान में केन्द्रित करना, स्थिर करना धारणा है ।२५९ जिस ध्येय वस्तु में चित्त को लगाया जाए, जब चित्त उसमें एकाग्र हो जाए, केवल ध्येय मात्र की ही प्रवृत्ति का प्रवाह चलता रहें उसके बीच में कोई दूसरी वृत्ति न उठे उसे ध्यान कहा जाता है।२६०
ध्यान करते - करते जब चित्त ध्येय के आकार में परिणत हो जाए, चित्त के अपने स्वरूप का ममता, आसक्ति, वासना, स्पृहा, माया आदि साधना में योगाभ्यास में विघ्न करते हैं। इसलिये ये साधक के एक प्रकार से शत्रु हैं। अरिहंत - पद के ध्यान से साधक के ये शत्रु स्वत: नष्ट हो जाते हैं। २६१
अरिहंत प्रभु का ध्यान - योग में सालंबन - ध्यान कहा जाता है। सालंबन का अर्थ - आलंबन सहित है। इस ध्यान में अरिहंत देव ध्येय के रुप में आलंबन होते हैं।
सिद्धपद साधना की सफलता या सिद्धि का सूचक हैं। इस पद की आराधना और ध्यान से साधक में असीम आत्मबल का जागरण होता है। ऊर्जा प्रस्फुटित होती है। यदि वह उसको संभालकर साधना में, योगाभ्यास में निरत रहता है। यहाँ प्रतीक के रुप में किसी मूर्त आलंबन का सहारा नहीं लिया जाता।
सत् - चित्त - आनंदमय, अमूर्त, अभौतिक, भाव ही यहाँ ध्यान का विषय होता है।
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