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________________ आसन योग का तीसरा अंग आसन है। पूर्व प्रसंग में आसन के विषय में विस्तार से विवेचन किया है। सामायिक, स्वाध्याय तथा ध्यान आदि की दृष्टि से समीचीन रूप में - बैठने का बहुत महत्त्व है। पंच महाव्रती साधक महाव्रतों के अनुसार णमोक्कार मंत्र के साथ - साथ, कर्म-क्षय के हेतु - तपश्चरण के रुपों में अनेक प्रकार से प्रयत्नशील रहता है। जिसके लिये आसन शुद्धि आवश्यक है। स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने 'आसन - प्राणायाम - मुद्रा - बंध' नामक पुस्तक में ध्यान के लिए निम्नांकित आसनों को उपयोगी बतलाया है। १) पद्मासन २) सिद्धासन (पुरुषोंके लिए) ३) सिद्धयोनि, आसन (महिलाओं के लिए) ४) स्वस्तिकासन । नए अभ्यासियों के लिए ध्यान के सरल आसन हैं। १) सुखासन २) अर्धपद्मासन २५७ पुनश्च - आसन, काय - सिद्धि का एक अंग है । समता की प्राप्ति के लिए काय - सिद्धि और काय - सिद्धि के लिए आसन के प्रयोग किए जाते हैं।२५८ स्थान निर्विघ्न हो, एकांत हो, ऊन आदि का शुद्ध आसन हो । बैठने में सुखमय आसन का प्रयोग किया जाएँ । कठोर आसनों का प्रयोग न किया जाए, जिनसे देह को अत्याधिक कष्ट होता है। ऐसा होने से मन स्वाध्याय, ध्यान आदि से हटकर देह में चला जाता है। प्राणायाम ____ जीवन के साथ प्राणवायु का बड़ा गहरा संबंध है। प्राणवायु पर चित्त को स्थिर कर विशेष रुप से ध्यान करने की कई पद्धतियाँ प्रचलित हैं। जिनमें विपश्यना, प्रेक्षा आदि नाम प्रचलित हैं। प्राणायाम का हठयोग में बड़े विस्तार से वर्णन किया गया है। श्वासोच्छवास की क्रिया को संतुलित रखने के लिए रेचक, पूरक और कुंभक का अभ्यास आवश्यक है। जैन मनीषियों ने प्राणायाम का आध्यात्मिक दृष्टि से बड़ा सूक्ष्म और सुंदर विवेचन किया है। उनके अनुसार रेचक का अर्थ मन में व्याप्त अशुभ या पापमय भावों को बाहर निकालना है। पूरक का अभिप्राय - शुभ-भावों को अपने भीतर भरना है। कुंभक का अर्थ - शुभ भावों को अपने अंत:करण में टिकाए रखना है। बारंबार ऐसा अभ्यास करने से मन में स्थित पापपूर्ण भाव नष्ट होते हैं। पुण्यात्मक भाव संचित या संग्रहित होते हैं। उनको जब अंत:करण में स्थिर कर लिया जाता है, तब मानव धार्मिक अनुष्ठान में विशेष रुप से अभिरुचिशील बन जाता है। उसका जीवन आत्मोत्कर्ष की भूमिकापर क्रमश: अग्रसर होता (२५५)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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