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णमोक्कार मंत्र में पाँचवे पद में साधु है। साधु उन्हें कहा जाता है - जो निरपवाद रुप में महाव्रतों का पालन करते हैं। जब तक एक साधक ऐसी भूमिका अपनाने में अपने को सक्षम नहीं समझता, तब तक वह अपनी क्षमता के अनुरुप विभिन्न अपवादों के साथ विभिन्न व्रतों का पालन करता है - वे अणुव्रत कहलाते हैं। वे एक प्रकार से यमों का ही रुप लिये हुए हैं । अणुव्रती साधक के मन में सदा यह भावना बनी रहती है कि उसे कब वह सौभाग्य प्राप्त होगा, जब वह जीवन को महाव्रतमय आराधना के साथ जोड़ सकेगा। श्रमणोपासक या अणुव्रती साधक के जीवन में यह भावना रहती है - ___'कयाणमहं मुंडा भविता पव्वइस्सामि' - मैं संयमी जीवन कब स्वीकार कर पाऊँगा, वैसा शुभ अवसर मुझे कब मिलेगा। ___उत्कंठा, उत्साहशीलता एवं अभिरुचि जब तीव्र होती है, तब भावना नि:संदेह फलवती एवं सिद्ध होती है। एक समय आता है कि वह अपवादों को छोड़कर अणुव्रतों या यमों से महाव्रतों की दिशा में प्रयाण करता है। णमोक्कार मंत्र के पाँचवें पद का अधिकारी बन जाता है। जीवन एक नया मोड़ ले लेता है। साधक व्रत पालन में सावधान रहता हुआ, आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर अग्रसर रहता है। २) नियमः
यम के बाद योग का दूसरा अंग नियम है । शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, तथा परमात्मोपासना - ये पाँच नियम हैं।२५६
णमोक्कार के पंचम पद के अधिकारी साधु के जीवन के साथ यदि इन नियमों को जोड़ा जाएँ तो ये बड़े संगत प्रतीत होते हैं। शौच का अर्थ बाह्य और आंतरिक पवित्रता है। आंतरिक पवित्रता का बहुत बड़ा महत्त्व हैं। कहा है -
“आत्मा नदी संयम - पुण्य - तीर्था सत्योदकां शीलतटा दयोर्भिः तत्राभिषेकं कुरु शुद्ध बुद्धे, न वारिणा शुध्यति चान्तरात्मा।”
अर्थात् आत्मा नदी हैं। संयम पवित्र तीर्थ है। उस आत्मारुपी नदी में स्नान करो । मात्र जल से आंतरिक शुद्धि नहीं होती।
__ आंतरिक शुद्धि पर सभी धर्मो में बड़ा जोर दिया गया है। संतोष का जीवन में बहुत महत्त्व है । तप से आत्मा निर्मल होती है। स्वाध्याय से सद्ज्ञान प्राप्त होता है। जीवन में पवित्रता का संचार होता है तथा परमात्मोपासना से साधक परमात्म - भाव की ओर या आत्मा की शुद्धावस्था की दिशा में प्रगतिशील होता है। ये पाँचो नियम ऐसे हैं, जो प्रत्येक साधक के लिए कल्याणकारी हैं।
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