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________________ शुद्ध आत्मा का चिंतन इस प्रकार अग्रसर होता है - मैं शुद्ध हूँ, दर्शन - ज्ञानमय हूँ, सदा अरुपी हूँ, कोई भी अन्य पदार्थ परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है ।२४७ जीव शब्द, रुप, रस, गंध, स्पर्ध से रहित है, अव्यक्त है - इंद्रिय गोचर नहीं है, उसका गुण चेतना है। वह निर्दिष्ट लिंग, चिह्न, संस्थान या आकार से परे है। ____ज्ञानी पुरुष विचार करता है - निश्चय दृष्टि से मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, ममत्वरहित हूँ, ज्ञान - दर्शन से पूर्ण हूँ, अपने स्वभाव में स्थित होता हुआ, चैतन्य अनुभाव में लीन होता हुआ, क्रोध आदि सभी आम्नवों का - कर्म प्रवाहों का मैं नाश करता हूँ।२४८ जीव-अजीव पदार्थों का श्रद्धान सम्यक्त्व है, उनका अधिगम ज्ञान है। रागादि का परिहरण या त्याग चारित्र है । वही मोक्ष का मार्ग है। २४९ ___जिस जीव में, लेशमात्र भी राग आदि विद्यमान है, वह जीव समस्त आगमों का ज्ञान रखता हुआ भी आत्मा को नहीं जानता अर्थात् आत्मा के शुद्ध स्वरुप का उसको बोध नहीं है। जो आत्मा को नहीं जानता, वह अनात्मा को भी नहीं जानता। आत्मा के अतिरिक्त अजीव पदार्थ को नहीं जानता। उनके स्वरुप का उसको यथार्थ बोध नहीं होता, वह सम्यक् दृष्टि कैसे हो सकता है ।२५० अनुचिंतन : निश्चय दृष्टि से जब चिंतन किया जाता है, तब आत्मा ही वह परम तत्व है, जो ध्येय उपास्य और आराध्य है। 'ध्यांतु योग्यं ध्येयं' - के अनुसार ध्येय का अर्थ ध्यान करने योग्य या ध्यान का विषय है । “उपासितुं योग्यं उपास्यम् ” जो उपासना करने के योग्य होता है, उसे उपास्य कहा जाता है। उपासना का अभिधेय अर्थ - समीप बैठना है। उसका लक्ष्यार्थ भावात्मक दृष्टि से गुरु का अथवा पूज्य का सामीप्य प्राप्त करना है, उनके मार्गदर्शन से ध्येय के शुद्ध स्वरुप के समीप पहुँचना है, उसे अपनी अनुभूति में ढालना है। आराधितुं योग्य आराध्यम् - जो आराधना करने योग्य है, उसे आराध्य कहा जाता है - आराधना का सूक्ष्म अर्थध्येय, उपास्य या आराध्य के स्वरुप की अपने में अवतारणा करना है। आत्मा ही ध्येय, ध्याता और ध्यान है। तीनों का उसी में समावेश होता है। उसी प्रकार वही उपास्य, उपासक और उपासना है। वही आराध्य, आराधक और आराधना है। यह शुद्ध नयमूलक दृष्टिकोण है, जो शुद्धोपयोग से सिद्ध होता है। णमोक्कार मंत्र साधक को शुद्धोपयोग की भूमिका में अवस्थित होने की प्रेरणा प्रदान करता है। (२५२)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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