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________________ करनेवाला नय भी नैगमनय कहलाता है ।२४० २) संग्रहनय : अभेद रुप से समस्त वस्तुओं को संग्रह करके उसका कथन करना संग्रह नय हैं। एक शब्द द्वारा अनेक पदार्थों को ग्रहण करना संग्रहनय है।२४१ जैसे जीव शब्द को कहने से सब प्रकार के त्रस - स्थावर जीवों का ग्रहण हो जाता है। ३) व्यवहार नय : संग्रह नय द्वारा ग्रहण किये जानेवाले पदार्थों का जो योग्य रीतिसे विभाग करता है, उसे व्यवहार नय कहा जाता है। ४) ऋजु सूत्र नय : ऋजु का अर्थ अवक्र है। वस्तु को अवक्रता से, सरलता से कहना ऋजु सूत्र नय है। नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र ये चार नय अर्थनय है और इसके पश्चातवर्ती तीन शब्दनय है। इस प्रकार ये सात नय ज्ञानात्मक और शब्दात्मक है। ५) शब्दनय : शब्दों में लिंग आदि के भेद के आधार पर जो अर्थ का भेद बताता है वह शब्द नय हैं। ६) समाभिरुढ़नय : जहाँ शब्द का भेद है वहाँ अर्थ का भेद अवश्य होता है। अर्थ की दृष्टि की भिन्नता को स्वीकार करनेवाला समभिरुढ़नय कहा जाता है । ७) एवंभूत नय : जिस शब्द का अर्थ जिस क्रिया को प्रगट करता है उस क्रिया में तत्पर पदार्थ को या व्यक्ति को उस शब्द का वाच्य मानना एवंभूतनय है। प्रत्येक शब्द का अर्थ किसी न किसी क्रिया के साथ संबंध रखता है ।२४२ जैन दर्शन विभिन्न दृष्टियोंसे और सभी अपेक्षाओं से सत् का विश्लेषण करता है। अनेकांतवाद जैन दर्शन की विश्व दर्शन को महान भेट है। नयवाद भी इसीका सूचक है। यह विज्ञान में कुशल पुरुष एक एक नय के अभिप्राय से वस्तु का यथार्थ स्वरुप भलिभाँति जान सकता है, अन्य दर्शनों की अयथार्थता का भी परिचय प्राप्त कर सकता है और दूसरे को स्थिर रखने में सहाय भी कर सकता है ।२४३ सातों नयों की अपेक्षा से इस महामंत्र नवकार की उत्पत्ति और अनुत्पत्तिके संबंधमें विचार करते हुए कहा जाता है कि - द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा यह नवकार मंत्र नित्य है। नैगम नय की अपेक्षा से यह नमस्कार मंत्र नित्य है। विशेष पर्याय को ग्रहण करनेवाले नयों की अपेक्षा से यह मंत्र उत्पाद व्यय से युक्त है क्योंकि इस महामंत्र की उत्पत्ति के हेतु समुत्थान, वचन और लब्धि ये तीन है । नमस्कार मंत्र का स्मरण सशरीरी प्राणी करता है और शरीर की प्राप्ति अनादिकाल से बिजांकूर से होती आ रही है और प्रत्येक जन्म में भिन्न भिन्न शरीर होते हैं, अत: वर्तमान जन्मके शरीर की अपेक्षा नमस्कार मंत्र सादी है। इस मंत्र की प्राप्ति गुरु वचनों से होती है, अत: उत्पत्तिवाला होने से सादी है। इस महामंत्र की प्राप्ति (२५०)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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