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६) संवरतत्व - आश्रव का निरोध करनेवाले तत्व को संवरतत्व कहते है। संवर मोक्षमार्ग
की ओर प्रस्थान करने का प्रथम चरण है। ७) निर्जरा तत्व - जीव के साथ पूर्वबद्ध कर्मों को क्षय करना अथवा अंशत: क्षय करना
निर्जरा है। ८) बंधतत्व - जीव कषाय युक्त होकर कर्म रुपमें परिणत होने के योग्य पुद्गल द्रव्य को
ग्रहण करता है यही बंध है अथवा कर्म योग्य पुद्गलों का और जीव का अग्नि और
लोह पीडं के समान परस्पर अनुस्युत (एकत्र) होना बंध है। ९) मोक्षतत्व : आत्मप्रदेश से सभी प्रकार के कर्मों का सर्वथा क्षय होना मोक्षतत्व है।
'कृस्न कर्म क्षयो मोक्षः। २२५
जैन दर्शन में एक से आठ तत्वों का अनेक भेदों के साथ विस्तार से वर्णन किया गया है। लेकिन इसकी विस्तृत चर्चा यहाँ पर प्रस्तुत नहीं है।
नमस्कार महामंत्र - जिसमें पंचपरमेष्ठिको नमस्कार किया गया है, सभी प्रकार के पापों को नष्ट करनेवाला है। पापी से पापी व्यक्ति भी इस मंत्र के स्मरण से पवित्र हो जाता है तथा उसके सभी प्रकार के पाप इस महामंत्र के स्मरणमात्र सेही नष्ट हो जाते हैं।२२६
मंगल वस्तुओंमें सबसे उत्कृष्ट मंगल नवकार मंत्र है। नवकार मंत्र के जपसे अनेक प्रकारकी सिद्धियाँ प्राप्त होती है और पुण्य की वृद्धि होती है। कहा जाता है कि - जन्म, मरण, भय, पराभव, क्लेश, दु:ख, दरिद्र आदि इस महामंत्र के जापसे क्षण भरमें भस्म हो जाते हैं । २२७
जैन दर्शन में जो नवतत्त्व स्वीकार किये गये हैं, वे दर्शनपक्ष और आचार पक्ष दोनों के ही पूरक है। अस्तित्व की दृष्टि से जीव और अजीव दो तत्व स्वीकार किये गये हैं, अर्थात् संसार में जीवात्मक और अजीवात्मक दो प्रकार के अस्तित्व हैं । २२८ नमस्कार महामंत्र सबसे पहले जीव तत्वा का बोध प्रदान करता है क्योकि अरिहंत से साधु तक पाँचों पद जीवात्मक हैं। ____जीवको जब जाना जाता है तो उसके विपरीत तत्वका बोध भी हो जाता है । जैसे प्रकाश को जब जाना जाता है तब अंधकार की प्रतीती भी हो जाती है। अंधकार के बिना प्रकाश के उद्भव का बोध नहीं हो पाता है। जैसे हम जीव को जान लेते हैं, वैसे ही तुरंत हमें अजीव का भी बोध हो जाता है और हमारी चिंतन धारा जीव का लक्ष्य क्या होना चाहिये इस विषय में हम पूरी सावधानी से कार्य करने लगते हैं।
जीव के बद्ध और मुक्त मुख्य दो प्रकार है। मुक्तजीव चिन्मय, आनंदमय, शक्तिमय,
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