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________________ बन जाता है, और यही तो माध्यस्थ भावना है। संक्षेप में कहा जाए तो अन्य के दोषों की उपेक्षा करना माध्यस्थ भावना है और उसका दूसरा नाम भी 'उदासीन भावना ' 1 “मौनं सर्वार्थं साधनं । जीवकी किसी न किसी परिस्थितीमें साधक मौन ही रखता है। इसलिए मौन का सहारा लेना हितावह है और यही माध्यस्थ भावना है। भगवान ने कहीं पर भी ऐसा नहीं कहा है कि - चाहे क्लेश हो, झगड़े हो फिर भी पर को सुधारने की कोशिश करे । पापी या दुष्ट को सुधारने के लिए ताड़ने और मारने का उपदेश नहीं दिया है। ऐसा हो भी नहीं सकता। इसलिए ऐसी परिस्थितीमें मौन या उपेक्षा ही परम उपकारी सिद्ध हो सकता है। माध्यस्थ भावना के अधिकारी इस संसार के सभी जीव हो सकते है । प्रत्येक के लिए वे बहुत उपयोगी है। मुख्यतया संसार से विरक्त, अध्यात्ममार्गी, आत्मकल्याणकारी, स्वहितैषी, परोपकारी, मोक्षमार्गी, प्रत्येक धर्मी आत्मा के लिए यह भावना परम उपकारी है। यह भावना स्व और पर दोनों का रक्षण करनेवाली है। इसलिए यह भावना कोई भी भा सकते है। इस भावना से आचरण से साधक का कर्मबंध होता नहीं है और पर को क्लेश एवं कषाय से बचाया जा सकता है। दोनों की भव परंपरा कटती है और शांति से वह जीवन यात्रा समाप्त कर सकता हैं । यह भावना भाने से साधक को समता प्राप्त हो सकेगी और वह प्रशमरसके सुख सागर में लीन हो सकेगा। इतना ही नहीं उसे परम सुख और शाश्वत शांतिका परमानंद भी प्राप्त हो सकेगा । मैत्री, प्रमोद, करुणा, माध्यस्थ ये चार भावनाएँ मानवजीवन को स्पर्श करती है । यह भावनामें जो भावित होता है वह जीव कर्म समूह को जला देता है । हर्ष शोक नहीं करता और ये भावना संसाररूपी समुद्र को पार करने के लिए नाव समान है। “ये भावना मोक्षेण योजना योग : १२२१ योग आत्मा का संबंध मोक्ष के साथ जोड़ता है । चारों योग भावनाओं का निष्कर्ष बताते हुए आचार्य सम्राट पू. आनंदऋषीजी महाराज लिखते हैं कि- जीवनमें इन योग भावनाओं का वि मनुष्य को 'मनुष्यता के श्रेष्ठतम शिखर पर पहुँचा देता है। इन भावनाओं का प्रयोग न केवल आध्यात्मिक जीवन ही होता है बल्कि व्यावहारिक जीवन में भी बहुत उपयोगी है। आज के जन जीवनमें द्वेष, ईर्षा, संघर्ष और कलह का कारण इन भावनाओं का अभाव ही है । यदि हम मैत्री गुणग्राहकता, करुणा और तटस्थता सीख लें तो - वर्तमान संसार की अधिकांश समस्याओं स्वत: ही सुलझ जाएगी। वर्तमान संसार की समस्याओं मानवीय हैं, मानवकृत है । मनुष्य के राग-द्वेष, अहंकार और स्वार्थ ने ही संसार में समस्याओं पैदा की है । यदि ये समस्याओं सुलझ जाए तो, इसे सुलझाने में इन योग भावनाओंका बहुत बड़ा योगदान प्रदान हो सकता है। इसलिए आध्यात्मिक प्राप्ति के साथ-साथ मानवीय शांति के लिए इन (२४३)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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