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________________ होता है। वे लोग यह जानते है कि - पाप करने से दु:ख की प्राप्ति होगी। फिर भी पाप प्रवृत्ति का त्याग करने के लिए वे तत्पर नहीं होते है।२१९ क्रोधादि चार कषाय, हास्यादि नौ नो कषाय, निंदा, असूया, कलह आदि अंतर विकारों में मशगूल रहनेवाला सामान्यजन के प्रति भी समभाव रखना यही उदासीनता या माध्यस्थभाव है जिनके हृदय विकारों से भरे हुए है और संसार कोई सर्वस्व मानकर पुण्य कार्यों से विमुख हो - धर्म के प्रति तिरस्कर का भाव रखता हो, ऐसे सामान्य जीवों के प्रति समभाव रखना माध्यस्थ भाव है। उदासीनता माध्यस्थ्य आगम का सार है। बहुत शास्त्र, ग्रंथों के लेखन वाचन का अंतिम पर्यावसान प्राप्त करने का स्थान औदासीन्य भाव में ही है। ज्ञानसार के रचयिता उपाध्याय यशोविजयजीने दयर्शाया है कि - ‘उपसार है प्रवचने' अर्थात् शास्त्रग्रंथों के पठन, पाठन का अंतीम उद्देश्य उपशम प्राप्त करना ही है। उदासीनता इष्ट फल देनेवाला कल्पवृक्ष है । यह औदासीन्य महान तीर्थ के समान है, इसलिए औदासीन्य का तू सतत् स्मरण कर पाठ कर । इस प्रवृत्तिसे तुझे परम शांति प्राप्त होगी और इस भावना को उपेक्षा भावना के नाम से भी वर्णित किया गया है। उपदेश सलाह तबतक दी जा सकती है, जब तक सुननेवालो या ग्रहण करनेवालो को प्रिय लगती हो और उपदेश ग्रहण करने की उसकी तत्परता हो, अन्यथा उपदेश का कोई मूल्य नहीं रहेगा। यदि उपदेश ग्रहण करनेवाला तत्पर न हो तो शांत रहना ही अच्छा है। नीतिकारोने दर्शाया है कि - उचित प्रसंग पर कही हुई बात चाहे कटु क्यों न हो, तो भी वह मीठी लगती है और उसका स्वीकार भी हो सकता है। यदि किसी जीवको हितोपदेश दिया जाए और उसे यह पसंद न हो, उसका वह स्वीकार भी न करें तो भी उस पर क्रोध करना अच्छा नहीं है। क्रोध करने से तेरी शांति चलीत हो जाएगी। तेरी साधना और समता में ओट आएगी। इसलिए ऐसी परिस्थितीमें माध्यस्थ भावना रखने की परम आवश्यकता है। २२० “माध्यस्थ भाव विपरीतवृत्तौ” ज्ञानियों ने यह दर्शाया है कि - जो कोई विपरीत दुष्ट वृत्तिवाला हो, इसे धर्म नहीं पाप ही पसंद हो और उसके पाप छूडाने की आदत तो चाहे कितना भी उपदेश देकर या तो समझा-बुझाकर धर्ममार्ग में लाने का प्रयत्न करें तो भी वैसी व्यक्ति पाप प्रवृत्ति से विमुख नहीं होती है। चाहे कितना भी कहा जाए तो भी शुभप्रवृत्ति की ओर कार्य करना पसंद न करें, ऐसी विपरीत वृत्तिवाले जीव के प्रति उदासीनता रखना, राग या द्वेष का परिणाम न करना और हमारी शांतिमें विक्षेप हो ऐसा कुछ न करना हमारा कर्तव्य (२४२)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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