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करुणा भावना की ओर मंगल प्रस्थान करें, मांगलिक भावकी उनके हृदयमें विकास होवे और स्व और पर को शास्वत शांतिप्रदान करें, यही हमारी प्रार्थना होनी चाहिए और हमारा अंतिम लक्ष्य होना चाहिए।
माध्यस्थ भावना
चार परा भावनाओं में माध्यस्थ भावना अंतिम भावना है। इस भावना का संबंध मानवी की मनोवृत्ति के साथ है। मानस विद्या का जितना निकट परिचय हमें होगा इतना इस भावना का विकास हो सकेगा। इस भावना के बारे में आचार्य हेमचंद्राचार्यजी लिखते हैं - इस संसार में हिंसादि क्रूर कार्य करेवाले, दुष्टबुद्धिवाले अनेकों जीव हैं, देव, गुरु और धर्म की निंदा करनेवाले और स्वकी प्रशंसा करनेवाले जीवों के प्रति उपेक्षा दिखाने को माध्यस्थ भावना कहा गया है। २१८ ___ इस संसारमें द्वैत भाव शास्वत है । मोक्ष शास्वत है तो संसार भी शास्वत है, जड़ और चेतन शास्वत है, पुण्य और पाप, सुख और दुःख, धर्म और अधर्म, सत्य और असत्य, हिंसा और अहिंसा राग और द्वेष, वैर और क्षमा, प्रेमा और वैरं आदि अनेक भावो इस संसार के शास्वत भाव है। ये सब भाव भूतकाल में भी थे, वर्तमान में भी है
और भविष्यमें भी रहेंगे। समुद्र में जिस तरह एक ओर हिरे-मोती हैं तो दुसरी ओर कुड़े कचरे भी है। इसी तरह संसार में भी अच्छे और बूरे का चक्र निरंतर चलता रहता है। भगवान महावीर के समयमें भी हिंसक, क्रूर मानव थे और आज भी है।
इस संसार में धर्मी आत्माओं की संख्या कम है और अधर्मी ज्यादा है। पुण्य करनेवाले पुण्यशाली कम है और इसकी तुलनामें पाप करनेवालों की संख्या अधिक है। सज्जनों की संख्या कम है और दुर्जनों की संख्या अधिक है। संसार की यह कितनी भयंकर करुणता है।
इस संसारमें यदि कोई जीव दु:ख से पीड़ित हो तो हमें यह समझना चाहिए कि इससे ने अवश्य पाप किये होंगे और कोई सुखी दिखता हो तो हमें यह समझना चाहिए कि उसने जरुर पुण्य किये होग।
संसार की करुण विचित्रता का वर्णन करते हुए आचार्य श्री हरिभद्र सुरिश्वरजी महाराज लिखते हैं कि - पुण्य का फल जो सुख होवे तो सभी प्राणि इसकी इच्छा करते है, लेकिन वे ही प्राणी धर्म या पुण्य करने के लिए तैयार नहीं है। दूसरी ओरपाप का फल दुःख की कोई भी प्राणी इच्छा नहीं रखता है। किसी को दु:ख प्रिय नहीं है, मगर आश्चर्य की बात तो यह है कि - दु:ख के मूलभूत कारण पाप प्रवृत्ति का त्याग करने के लिए कोई तैयार नहीं
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