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संसार के जीवमात्र सुख की इच्छा रखते है। कोई भी दु:ख की इच्छा नहीं रखता है। सभी जीव जीने की इच्छा रखते हैं, मरने की नहीं। मरना किसी को पसंद नहीं हैं क्योंकि, मरने में बहुत दुःख है और जीनेमें जीवने सुखों की कल्पना की है। अत: किसी भी प्राणी की हत्या नहीं करनी चाहिए। २०८
__दया और करुणा दोनों एक नहीं है । करुणा वह कारण है और दया कार्य है। जहाँजहाँ दया होती है, वहाँ-वहाँ करुणा अवश्य होती है मगर करुणा होते हुए भी कभीकभी दया नहीं भी होती है इसलिए दया और करुणा के बीच कार्य कारण का संबंध है । जन्यजनक भाव है। यदि मानवी के जीवन में दया और करुणा ये दोनों का संगम हो जाए तो मानव एक दिन महामानव बन सकेगा । करुणा भावना जीव मात्र की ओर दया वृत्तिको जागृत करती है और सभी जीवों के प्रति समभाव व्यक्त करती है। ___ दु:खी लोगों को देख दुःखी होना, उसकी दुःख से मुक्ति होना ऐसा विचार करुणा
भावना है। २०९
दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान
तुलसी दया न छोडीये , जब लगें घटमें प्राण । “दया धर्म का मूल है" - धर्म की नींव है। दया के बिना धर्म का अस्तित्व हो ही नहीं सकता । २१° धर्मी मनुष्य दयालु होना चाहिए और करुणा सभर भी होना चाहिए । जैन दर्शन में करुणा भावना की बहुत ही प्रशंसा की गई है और दया और करुणा से इतिहास के पृष्ठोंपर बावीसवें तीर्थंकर यदुकूल भूषण नेमिनाथ तीर्थंकर पद की प्राप्ति के पूर्व जब संसारी थे तब बारात लेकर शादी के लिए जा रहे थे। स्वसूर के महलके पास बारात पहुँचती है और उन्हें अनेक पशुओं की दुःखपूर्ण आवाज सुनाई देती है। वे रथ चलाने वाले सारथी को पूछते हैं कि - पशुओं की दुःखपूर्ण आवाज क्यों आ रही है ? उत्तर में जब सारथी बतात है कि - बारातियों के स्वागत के लिए - भोजन के लिए पशुओं की कत्ल करके बारातियों को उसका भोजन परोसा जाएगा। यह सुनकर वे सारथी को हुकुम करते है कि - पशुओं के बंधन को छोड़ दें, उनके बंद क्लिवाड़ खोल दें और रथ को वापस घूमा दें। किसी को दुःख पहुँचाकर या हिंसा करके शादी करने की मेरी जरा भी इच्छा नहीं है। २११ करुणा भाव का यह उदाहरण जैन जगत में ज्योति स्तंभ है।
गुजरात के राजवी महाराजा कुमारपाल आचार्य हेमचंद्राचार्य से प्रतिबोध लेकर आदर्श जैन बन गये थे। उन्होंने पूरे गुजरात राज्य में अहिंसा के पालन के लिए आज्ञापत्र घोषित किया था, पशु या पक्षीकी हत्या लिए बहुत कड़ी सजा जाहिर की थी और जीवदया के
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