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। दुर्गंधसे मुझे कोई परेशानी नहीं हुई है। इस तरह श्रीकृष्ण की गुणग्राहिता का वर्णन शास्त्रकारोने अच्छी तरह से किया है और हमें दर्शाया है कि - गुण प्राप्ति कहीं से भी हो सकती है।२०३
शास्त्रकारोने यह दर्शाया है कि - यदि किसी में से गुण का स्वीकार करनाहो तो व्यापक एवं उदार दृष्टि से गुण का स्वीकार करना चाहिए क्योंकि गुण ही सर्वत्र पूज्य है, नहीं कि- लिंग या वय !
“गुणा: पूजास्थानं गुणीषु, नच लिंग, नच वयः।” . छोटे बच्चेमें भी यदि गुण हो तो उसका स्वीकार करना गुणानुरागी का कर्तव्य बन जाता है। क्योंकि गुण और गुणी अभिन्न होने से गुणी पर राग रखना वह गुण पर राग रखने के समान हो जाता है। __ प्रमोद भावना गुण और गुणी दोनों की ओर आनंद प्रगट करता है। किसी के गुण को देखकर गुणानुरागी साधक आनंद विभोर हो जाता है। उसके मन की शांति का विकास होता है। इतना ही नहीं प्रमोद भावना से युक्त जीव में सहनशीलता - सहष्णुिता इतनी विकसित होती है कि वह - विश्वबंधुत्व या विश्वमैत्री में परिणत हो जाती है। इस भावना से विशालता, निर्मलता, सरलता, प्रेम - मैत्री का विकास होता है।
जैन दर्शन में आत्मा के विकास के लिए १४ गुणस्थानक वर्णित किये है। साधक आत्मा क्रमश: एक एक सोपान चढ़कर चौंदवें सोपान तक पहुँच सकता है और कर्म जन्य कषायदि पापों को क्षय करके उत्तम आत्म गुणों का प्रगटीकरण कर सकता है। २०४ वीतरागता, सर्वज्ञता और आत्मसिद्धि प्राप्त कर सकता है । इन चौदह गुणस्थानों में गुणोंका ही महत्त्व है । क्रमश: गुणों के विकास की अपेक्षा है और दोषों के नाश से ही आत्मा परमात्मा बन सकता है। २०५ प्रमोद भावना का प्रारंभ व्यक्ति से होता है, बहिर्रात्मा से होता है और उन्नति के पथ पर आगे बढ़कर परमात्म पद की प्राप्ति भी करा सकता है। ऐसी महान प्रमोद भावना जीव मात्र में प्रगट हो यही मंगल कामना ।
सर्व दुःखी विनाशिनी करुणा भावना :
आचार्य हेमचंद्राचार्य योगशास्त्र ग्रंथमें लिखते है कि - इस जगतमें जो जीव दीनदुःखी है, आर्त और पीड़ा ग्रस्त है, मृत्यु के भय से भयभीत है और जीने की इच्छा रखते है, और जीने की याचना करते हैं, ऐसे भयग्रस्त जीवोके दुःखों को दूर करने की भावना को करुणा भावना कहा गया है।२०६
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