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साधक के लिए गुणों की परम आवश्यकता है। जिस तरह दु:खी मनुष्य के लिए भोजन, तृषित मानवी के लिए जल और निर्धन के लिए जितनी धन की आवश्यकता रहती है इतनी ही नहीं बल्कि इससे भी ज्यादा सिद्धि मार्ग के साधक आत्मा के लिए गुणों की अनिवार्य जरुरत है । गुणों के बिना आत्मसाधना या आत्मशुद्धि असंवभव है। इसलिए शास्त्रकारोने बताया है कि - आत्मसाधना के लिए गुण साधना को प्राथमिकता देनी चाहिए और गुणों की उपासनासे ही प्रमोद भावना विकसित होती है।
पर निंदा और स्वप्रशंसा करने से - गुणों को आच्छादित करने से या तो बुरे गुणों को प्रगट करने से नीचे गोत्र कर्म बांधा जाता है। २०१ इस तरह का कर्म बंधन आस्नव की प्रवृत्ति है। स्वप्रशंसा और परनिंदा करने से जीव नीच गोत्रमें या तो नीच कूल में, जाति में जन्म लेता है और फिर से पाप कर्मों के बंधनमें प्रवृत्तिमय बन जाता है। इस तरह जीव की पाप प्रवृत्ति का चक्कर चलता रहता है। २०२
स्व-पर की निंदा प्रशंसा की चौभंगी - १) पर - निंदा
नीचे गोत्र कर्म बंधता है। पर - प्रशंसा उच्च गोत्र कर्म बंधता है। स्व - निंदा
उच्च गोत्र कर्म बंधता है। स्व - प्रशंसा नीच गोत्र कर्म बंधता है। स्व - गुण - प्रशंसा नीच गोत्र कर्म बंधता है। स्व - गुण - निंदा उच्च गोत्र कर्म बंधता है। स्व- गुण - प्रशंसा नीच गोत्र कर्म बंधता है। पर - गुण - प्रशंसा उच्च गोत्र कर्म बंधता है। स्व दोष - दुर्गुण - प्रशंसा नीच गोत्र कर्म बंधता है। स्व दोष - दुर्गुण निंदा उच्च गोत्र कर्म बंधता है। पर - दोष -दुर्गुण निंदा नीच गोत्र कर्म बंधता है।
पर - दोष - दुर्गुण प्रशंसा उच्च गोत्र कर्म बंधता है। दूसरों के गुणों की प्रशांसा करने से, स्वनिंदा करने से, अच्छे गुणों को प्रगट करने से, दुर्गुणों को ढंक देनेसे - गुणानुरागी दृष्टि रखने से नम्रता, सरलता, विनय आदि गुण रखने से एवं देव, गुरु धर्म की भक्ति करने से, पठन और पाठन की शुभ प्रवृत्ति करने से, आठ मद से
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