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________________ करता है । दोषानुरागी दुर्गुणानुरागी होता है । सम्यक्त्व की प्राप्ति के बाद भी यदि जीव दोषानुरागत्व की प्रवृत्ति चालू रखें तो सम्यक्त्व चला जाता है। इसलिए ऐसा भी कहा गया है कि गुण साधना यही आत्मा साधना है और आत्मसाधना ही गुण साधना है। श्री जिनहर्ष महाराजने तो यहाँ तक कहा है कि - जिसके हृदयमें महापुरुषोके प्रति गुणानुराग का भाव होता है ऐसे भाग्यशाली को तीर्थंकर पद की प्राप्तितक की सिद्धि दुर्लभ नहीं है। सचमुच तीर्थंकर बनने के लिए गुणानुरागी होना प्रथम सोपान है। १९६ गुणानुराग ही प्रमोद भावना है। श्रेष्ठ पुरुषों या महापुरुषों के गुणों को देखकर यदि हम प्रसन्न होवें तो समझना चाहिए कि - वास्तव में हम गुणानुरागी हैं। हममें प्रमोद भावना का उदय हुआ है। प्रमोद भावना से सभर हृदय कैसा उच्चारण करता है। इसके बारेमें श्री जिनहर्ष गणि लिखते है कि - वास्तव में वे ही प्रशंसनीय है,वे ही पुण्यशाली है और जिनके मन में गुणानुराग भरा पड़ा है उन्हें मेरा नमस्कार हो । इस व्यक्तिमें दूसरों के गुणों के प्रति राग या बहुमान सभर होता है, उनकी ओर हमें भी आनंद होना चाहिए। १९७ ।। गुणानुराग या तो प्रमोद भावना के विकास के लिए साधक को क्या करना चाहिए ? इस बात को बताते हुए पूज्य जिनहर्ष महाराज लिखते है कि - स्वाध्याय से तप से या तो दान आदि प्रवृत्तिसे यदि गुणों का विकास भी न हो तो दान, तप, आदि निरर्थक होता है। दान देने से दया गुण की वृद्धि होनी चाहिए । तप करने से अनाहारक वृत्ति विकसनी चाहिए । स्वाध्याय से नम्रता, मृदुता, ऋजुता आदि गुणों की वृद्धि होनी चाहिए। यदि ऐसा न हो तो - दुर्गुण दूर न होवें तो ऐसी साधना का कोई मूल्य नहीं है। इसलिए ज्ञानीयोंने दर्शाया है कि - साधकमें गुणवृद्धि अनिवार्य आवश्यक हैं। १९८ दूसरों के गुणों के प्रति अनुराग, आराधना को सार्थक बनाता है और इर्षा, द्वेष आदि दुर्गुण निष्फल हो जाते हैं। १९९ शास्त्रकारोने यह स्पष्ट किया है कि - यदि दूसरों के गुणों के प्रति अनुराग न हो या तो प्रमोद भावना का विकास न हो तो मौन रहना अच्छा है, लेकिन दूसरों के दुर्गुण या दोष नहीं देखना चाहिये । यथार्थ ही कहा गया है कि - जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि,जैसी मति वैसी गति । इसलिए देखने की दृष्टि उत्तम होनी चाहिए । गुणवान महात्माके जीवन को, उनके गुण को लक्ष्य में रखकर उनके प्रति आदर भाव बढ़ाने से हममें भी प्रमोद भावना आती है। प्रमोद भावना लोहचुंबक जैसी है। यह भावना हमें भी गुणों की ओर खींचती है और महात्मा जैसे गुण यदि हममें भी आ जाए तो हम भी सर्व गुणी - अनंतगुणी बन सकते हैं। गुणग्राही बननेमें बहुत ही लाभ है। सबसे उत्तम लाभ तो यह है कि - उत्तरोत्तर (२३२)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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