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________________ कर परम लक्ष्य की ओर गति करना साधक का कर्तव्य है। साधकोने हेय, ज्ञेय और उपादेय का विवेक रखकर गुणोंका स्वीकार करना चाहिये और दोषों का परिहार करना चाहिए। प्रमोद भावना गुणग्राही भावना है। गुणों को देखना, गुणों को देखकर आनंदित होना, गुणीजन प्रति सद्भाव रखना - उनके गुणों की अनुमोदना करना यही प्रमोदभावना का कार्य 'मेरी भावना' नामक प्रार्थना में 'युगवीरजी' ने बहुत ही आनंदित स्वरमें हमारे अंतरमें भावना का कैसा स्थान होना चाहिए यह दर्शाया है - प्रमोद भावनाके बारेमें वे लिखते है कि - गुणीजनोंको देखकर जब हृदय में प्रेम और आनंद का भाव उमड़ आवे और उनकी सेवा करने का मनमें संकल्प जगे इतनाही नहीं, मैं कभी भी कृतज्ञ न बनें या तो गुणी जनों के प्रति मेरे हृदयमें द्वेष या द्रोह की भावना न उठे, और उनके गुण ग्रहण का मेरे मनमें निरंतर भाव रहे, उनके दोष प्रति मैं निगाह तक न डालुं यह मेरी प्रार्थना है ।१९१ . ___गुणप्राप्ति की साधना ही सच्ची साधना हैं । गुणों के प्राकट्य के विनासाधना संभव नहीं है । लेकिन गुण का प्रागट्य कब होगा ? शास्त्रकारोंने समाधान करते हुए दर्शाया है कि - जब दोषों का परिहार करेंगे, दोषों को तिलांजली देंगे तब ही ही हममें गुणों का प्राकट्य होगा। गुण और गुणी का आधार आधेय संबंध है । गुण आधेय याने रहनेवाला । द्रव्य आधार याने रखनेवाला कहा गया है। अर्थात् दोनों में आधार-आधेय संबंध है। आचार्य श्री उमास्वातिजीने तत्त्वर्थ सूत्र में दर्शाया है कि - गुण और पर्याय जिसमें होता है वह द्रव्य कहलाता है ।१९२ जिस तरह सूर्य प्रकाश के बिना हो ही नहीं सकता, सूर्य के साथ प्रकाश अवश्य संलग्न है, नित्य है। इसी तरह द्रव्य के साथ गुण नित्य है। आचार्य हेमचंदाचार्य ने स्वादाद मंजिरी नामक ग्रंथमें दर्शाया है कि - जहाँ जिसका गुण स्पष्ट दिखाई देता है वहाँ वह द्रव्य अवश्य होता है । गुण दिखाई दे और द्रव्य न हो ऐसा कभी भी नहीं होगा।१९३ जीवमें जीव के गुण और अजीवमें अजीवके गुण नित्य रहते हैं। इस तरह किसी भी द्रव्य में जैसा गुण होता है वैसा ही होता है - परिवर्तित नहीं होता है । जीवमें जीव के गुण और अजीवमें अजीवके गुण हमेशाके लिए बिना परिवर्तित हुए जैसा का वैसा रहता है और इसी गुण की वृद्धि किसीभी द्रव्यमें होती है। एक द्रव्य और दूसरे द्रव्यके बीच भिन्नता दर्शानेवाला गुण ही है । गुण से ही द्रव्य की महत्ता बढ़ती है। 9 . (२३०)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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