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________________ सारा संसार और सारे संसार के लोग मेरा परिवार है। Under heaven one family इस तरह की व्यापक भावना मैत्री भावना का अंतिम लक्ष्य है । इस भावना से ही विश्व शांति के शुभ प्रवृत्ति करने का उत्तम विचार हमारे मनमें अवश्य स्थान लेगा । मैत्री भावना अनेक गुणोंका भंडार है, अनेक गुणों की जननी है । अनेक गुणों की रक्षणहार है । मैत्री भावना का क्षेत्र बहुत ही व्यापक और विशाल है । संसार के सभी प्राणियों में क्रमश: मैत्री भावना का विकास हो ऐसी मंगल प्रार्थना हम करते हैं । प्रमोद भावना की ओर अभिरूचि, आनंद, पूज्य भाव और दीर्घदृष्टि रखना इसे प्रमोद भावना कहा गया है। किसी भी प्रकार के पाप दोषों का दुर्गुणों की जरा भी संभावना नहीं है, ऐसे वीतराग, सर्वज्ञादि भगवंतो की ओर अर्थात् उन महापुरुषों के गुणों की ओर सद्भाव रखना उनकी स्तुति और अनुमोदना करना प्रमोद भावना है । १८८ आचार्य हेमचंद्राचार्य प्रमोदभावना की व्याख्या करते हुए लिखते है 'गुणानुरागी प्रमोदभावना' अर्थात् प्रमोद भावना में गुण का पक्षपात होता है । १८९ यहाँ पर पक्षपात शब्द गुण साथ जोड़ा गया है । जिनको दोष दुर्गुण या पाप के प्रति अप्रीति होती है और गुण की ओर विशेष लक्ष्य रहता है, गुण का अनुराग होता है - गुणप्राप्ति का लक्ष्य होता है। इसे गुण पक्षपात कहा जाता है । गुणपक्षपात से जो आनंद मिलता है उसे प्रमोद भावना कहा गया है। यदि मुझमें किसी भी एक गुण का होना मेरे लिए अच्छा बन जाता है और यदि वही गुण दूसरी व्यक्तिमें देखने को मिलता है तो उसे मैं बुरा मानता हूँ। यहाँ पर गुण की प्रशंसाका कोई सवाल ही नहीं उठता। यहाँ तो सिर्फ इर्षा भाव है। तेजोद्वेष है। इस तरह की इर्षा रखनेवाले से सच्चे अर्थ में साधक ही नहीं कहा जाएगा। इनमें तो प्रमोदभावना का एक अंशमात्र भी प्राप्त नहीं होगा। प्रमोद भावना हमें सच्चा साधक बननेकी प्रेरणा देती है । १९० संसार में गुण और दोष दोनों अनादि अनंत काल से शास्वत है और दोनों निज-निज स्वरूपमें स्थिर है। सुवर्ण-सुवर्ण है, और पत्थर पत्थर है। इसी तरह जो गुण है वह गुण ही रहता है और जो दोष है वह दोष ही है। संसार के गुणदोष की संख्या में कोई परिवर्तन नहीं हुआ हैं । 1 संसार होगा और गुणदोष नहीं होगें ऐसी संभावना हरगीज़ नहीं हो सकती है । जहाँ प्रतिदिन कुछ न कुछ अच्छा और कुछ न कुछ बुरा होता ही रहता है। उसका नाम तो संसार है। संसार में हँसना भी है और रोना भी है। पुण्य भी है और पाप भी है। ऐसे संसार से तैर (२२९)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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