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________________ के दूसरे स्तर (गढ़) में जन्म से परस्पर वैरवृत्ति रखनेवाले पशु और पक्षी निजी जन्मजात वैरवृत्ति भूलकर आराम और शांति से परमात्माकी देशना को श्रवण करते है। इस समय एक दूसरे के प्रति किसी भी प्रकार की वैरवृत्तिका प्रगटीकरण नहीं होता है और हम यह भी नहीं कह सकते है कि - तीर्थंकर परमात्मा ने किसी भी प्रकार का जादु किया हो या चमत्कार किया हो, मगर तीर्थंकर की पूर्ण अहिंसकता, और पूर्ण मैत्री के कारण प्रत्येक जीव अपनी वैरवृत्तिका विस्मरण करता है या तो उसकी वैरवृत्तिका शमन हो जाता है। तीर्थंकर परमात्मा की अहिंसा और मैत्री का यह शुभ प्रभाव है। समवसरण में उपस्थित रहने मात्र से ही जीवका कितना कल्याण होता है - उसमें दया, मैत्री और करूणा का कितना सुंदर वातावरण निर्मित होता है। यह जानकर करूणासागर परमात्मा को हमवंदन करते है और हममें भी ऐसे उदात्त गुणोंका आविष्कार हो ऐसी बारंबार प्रार्थना करते हैं। संपूर्ण अहिंसक ही अभयदाता हो सकता है। अर्थात् निर्भय ही सबका कल्याण कर सकता है। अहिंसक ही निर्भय बन सकता है और अहिंसक ही अभय का दान देकर अभयदाता बन सकता है। उपसर्ग सहने में मैत्रीभावना : जैनदर्शन में श्रावकाचार में उपसर्गों का बहुत सूक्ष्मता से वर्णन किया गया है। उपसर्ग साधक की कसोटी तो करता ही है और उसमें अनेक गुणों का विकास भी होता है। भगवान महावीर के जीवनमें अनेको उपसर्ग आये लेकिन भगवान महावीर इन उपसर्गों से जरा भी विचलित न होकर समता भाव में स्थिर रहे और मैत्री एवं करूणा का अनोखा दृष्टांत संसार के सामने रखा। चाहे चंडकौशिक हो, चाहे गोशाला, वर्धमान महावीर स्वामी ने सब के साथ स्नेहपूर्ण, मैत्रीपूर्ण, औदर्यपूर्ण, क्षमापूर्ण व्यवहार ही किया। भगवान पार्श्वनाथने भी कमठ और धरणेंद्र दोनों की ओर एक समान कल्याण भावका प्रागट्य किया। इस तरह के अनेक उदाहरण जैनधर्म कथा में मिलते हैं। चिरंतनाचार्य महापुरूष ‘पंचसूत्र' में अकल्याण मित्र और कल्याणमित्र दो प्रकार के मित्र बताते है और स्पष्ट लिखते है कि - अकल्याण मित्र का कभी भी साथ नहीं करना चाहिए । हमारा कल्याण मित्र तो अहिंसा आदि व्रत हैं - भवाभिनंदी मित्रको अकल्याण मित्र कहा गया है, ऐसा मित्र धर्म प्रवृत्ति न करते हुए अधर्म प्रवृत्ति ही करता है। इसलिए ज्ञानियांने दर्शाया है कि - आत्मा को उन्नति के पथ पर ले जानेवाला मित्र ही हमारा सच्चा कल्याण मित्र है। कल्याण मित्र का सहयोग निरंतर करना चाहिए।१८७ मैत्री भावना का विस्तार व्यक्ति से लेकर विश्व तक हो सकता है - “वसुधैव कुटूंबकम्' (२२८)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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