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तीर्थंकर गोत्र का बंध होता है। १८३ तीर्थंकर होने के पहले तृतीय भव में (जन्ममें) इन वीस बोलों की आराधना करके तीर्थंकर गोत्र का उपार्जन करता है। इस बीस बोल की आराधना के साथ भाव दयासे भरी हुई प्रार्थना आवश्यक है। ___मैत्री भावना का भीतरमें उदय होने के बाद क्रमश: उसका विकास होता है। मैत्री भावना इतना व्यापक स्वरुप ले लेती है कि संसार के सभी जीव-राशि का हित सोचने लगती है। आज की मानवता को महान धर्म कहा गया है लेकिन मानवतावादी मैत्री भावना मनुष्यतक सीमित नहीं होनी चाहिए। समस्त जीवों की सुख और शांति के लिए मैत्री भावना का विकास होना चाहिए। १८४
जैन दर्शन की उत्तम प्रार्थना की यह विशेषता है कि - निगोद से निर्वाण तक की विकास गतिमें संसार के निकृष्ट तम जीवों से लेकर मानवतक के कल्याण की प्रार्थना की गई है। संसारके किसी भी जीव को किसी भी प्रकार की कोई परेशानी न हो, दुःख या पीड़ा न हो ऐसी उन्नत भावना मैत्री भावना की मंगल प्रार्थना में अपेक्षित है। विश्व के किसी भी दर्शन में इतनी व्यापक भावना हमें नहीं मिलती है । जैन दर्शन की यह सर्वोत्तम भावना सच्ची प्रार्थना है उत्तम भावना है।
जैनदर्शन में यह भी बताया है कि - जैसा जीवंत तत्त्व हममें है वैसा संसार के सभी प्राणियों में है। आत्मतत्त्व या जीव तत्त्व की दृष्टि से संसार के सभी प्राणी समान है। यदि ऐसा हम स्वीकार करें तब ही हमारी मैत्री भावना का विकास होगा, अन्यथा यह असंभव है।
“आत्मवत् सर्व भुतेसु” अर्थात् सभी जीव मुझ जैसे ही है ।१८५ ऐसी उदात्तभावना मनमें प्रगट होने से ही मैत्रीभावना का प्राकट्य होगा।
"श्री दशवैकालिक सूत्रमें पढ़मं नाणं तओ दया ।” अर्थात् प्रथम ज्ञान और बादमें दया या अहिंसा का पालन करना ऐसा स्पष्ट आदेश दिया गया है ।१८६ हिंदू धर्ममें भी बताया गया है कि - "दया धर्म का मूल है।" यदि हम जीवतत्त्व का स्वीकार करें, उसका ज्ञान प्राप्त करें तो बाद में दया का काम सरल हो जाता है। जीवतत्त्वका ज्ञान प्रथम प्राप्त करना अनिवार्य है। इसलिए चाहे मैत्रीभावना कहो या दया भावना नाम से पुकारो। अहिंसा भावना या क्षमाभावना कहो - वास्तव में ये सब एक ही है। मैत्री शब्द बहुत व्यापक है और जो अपने में दया अहिंसा और क्षमा को अपने में समाविष्ट कर लेते है। अहिंसा के बिना मैत्री संभवित नही हैं और मैत्री के बिना क्षमा का प्रागट्य भी नहीं हो सकता यथार्थ ही कहा गया कि - जहाँ-जहाँ अहिंसा की स्थापना होती है - वहाँसे वैरवृत्तिका त्याग हो जाता है। अहिंसा के समक्ष कभी भी वैर वृत्ति टीक नहीं सकती। पूर्ण मैत्री और अहिंसा का उत्तम उदाहरण तीर्थंकर परमात्माका समवसरण है। समवसरण
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